श्रद्धांजलि, मो. सलीम : सदैव के लिए सो गया, पहाड़ को आवाज देने वाला चित्रकार

कभी पत्थरों पर कोयले से चित्र बनाते थे, फिर कल्पना शक्ति को मिले नए आयाम सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ा भारत के महान समकालीन चित्रकार मो. सलीम…

कभी पत्थरों पर कोयले से चित्र बनाते थे, फिर कल्पना शक्ति को मिले नए आयाम

सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ा

भारत के महान समकालीन चित्रकार मो. सलीम का अब हमारे बीच नहीं हैं। उनका 83 साल की आयु में निधन हो गया और वह संसार को अलविदा कहकर चले गये। कभी बाल काल में स्लेट या पत्थरों के ऊपर कोयलों से चित्र बनाने वाले इस महान कलाकार ने अपने अथक श्रम से एक ख्यातिप्राप्त चित्रकार होने का गौरव प्राप्त किया था।

मो. सलीम साहब पिछले कुछ दिनों से बीमार थे और मुरादाबाद के एक अस्पताल में आईसीयू में भर्ती थे, उनके पुत्र कमाल खाबर ने जानकारी दी कि उनका अंतिम संस्कार दो दिन पूर्व मुरादाबाद में कर दिया गया है।

भारत के मूर्धन्य चित्रकार मो. सलीम का जन्म 5 जुलाई 1939 में अल्मोड़ा के एक साधारण परिवार में हुआ था, उनकी शुरुवाती शिक्षा अल्मोड़ा से हुई, जिसके बाद वो लखनऊ कला एवं शिल्प महाविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने चले गए। उन्होंने 1959 में ललित कला में डिप्लोमा और 1960 में पोस्ट डिप्लोमा किया। लखनऊ कला महाविद्यालय में मो. सलीम को ललित मोहन, वीरेश्वर सेन, गिरीश्वर सिंह, मदन लाल नागर, राम वेज, श्रीधर महापात्रा जैसे कलाकारों का शिक्षण प्राप्त हुआ और रणवीर सिंह बिष्ट जैसे महान कलाकारों के साथ मिलकर शिक्षण करने का अवसर भी मिला।

अल्मोड़ा में जन्म होने के कारण उनकी कला में बचपन से ही यहां के सौंदर्य का प्रभाव रहा। यहां की प्राकृतिक और हिमालयी सौंदर्य, लोक जनजीवन, पहाड़, पेड़, घर आदि इनकी कला में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते थे। वे इंग्लैंड के प्रसिद्ध जल रंग चित्रकार सर विलियम रसल फिलन्ट के प्रयोगों से प्रभावित थे। मो. सलीम बताते थे कि जब वे छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे, तो स्लेट या पत्थरों के ऊपर कोयलों से चित्र बनाते थे, लेकिन लखनऊ कला विद्यालय ने उनके मस्तिष्क की परतें खोल दी और उनकी कल्पना शक्ति को नए आयाम प्रदान किये। मो. सलीम के ही शब्दों में “मन की उड़ान बहुत आगे ले जाने के लिए किसी बे-लगाम घोड़े की मानिंद फड़कने लगी, लेकिन मैं तब भी बच्चा ही था, अपनी कृतियाँ दिखाने में लज्जा का अनुभव करता था” । उनकी कला के प्रति यह भूख उनको लगातार नए नए आयाम की ओर ले जाती रही।

आर्थिक संसाधनों के अभाव के कारण मो. सलीम 1961 में जीबी पंत विश्वविद्यालय पंतनगर में बतौर ग्राफिक आर्टिस्ट कार्य करने लगे। ग्राफिक कला के जरिये वो बच्चो को कृषि पढ़ने में मदद करते थे। हालांकि वे खुद कभी भी इस काम से खुश नही रहे, वो अपनी तूलिका को कभी बांधना नहीं चाहते थे, लेकिन जरूरत आखरी मंजिल पर कबूल मांग लेती है। वो विश्वविद्यालय में काम को करते रहे और साथ ही साथ अपनी कला को भी समृद्ध करते रहे।

पहाड़ में रचे बसे होने के कारण मो. सलीम का पहाड़ के प्रति विशेष लगाव था। उनकी कला में कुमाऊं के समसामयिक जनजीवन का प्रभाव और लखनऊ की विशेष वाश तकनीक का हुनर था। मो. सलीम अपनी कला यात्रा में हमेशा समय के साथ चलते रहे। कला की यात्रा समय के सापेक्ष हमेशा अपना स्वरूप परिमार्जित करती रही। अपनी तकनीक और समकालीन सरोकार की कला उनकी प्राथमिकता रही। वे कहते थे कि
“समय को पकड़ना तो कलाकार की बड़ी जिम्मेदारी है” जल रंग, एक्रेलिक रंग, तेल रंग उनके सबसे पसंदीदा माध्यम रहे हैं, प्राकृतिक दृश्य चित्रों के यथार्थ रूप एव परिकल्पनाएं उनके चित्रों के मुख्य विषय रहे हैं, कुमाऊं के वास्तविक लोक जीवन शैली पर उनके बने चित्र समाज और जीवन को हुबहू कैनवास पर उतार देते थे।

उनकी कला में लोक जीवन, संस्कार, लोक कला, त्यौहार आदि का भी विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, कुमाऊं के लोक उत्सव, जीवन की साँझ, तीज त्यौहार, हुड़किया बो की रोपाई, और यहां की पर्वत श्रृंखलायें, लोक आभूषण में स्त्री आकृतियां, अल्मोड़ा के पुराने भवन व बाजार, ग्रामीण दृश्य, आदि अनेक चित्र उनकी तूलिका के श्रृंगार रहे हैं, कला जगत में काला रंग का प्रयोग आम तौर पर कलाकार अपनी कला में नही करते है। कहा जाता है कि काला रंग भावात्मक दृष्टि से सही नही होता है, लेकिन मो. सलीम ने अपनी कला में इस मिथक को भी तोड़ डाला। उन्होंने कभी भी काला एवं सफेद रंग के प्रयोग से गुरेज नही किया, उन्हें ये रंग पसंद थे। वे कहते है कि रंग रंग होते है उनके प्रभाव सिर्फ मस्तिष्क पर पड़ते है, वो एक प्रयोगधर्मी कलाकार थे। लगातार नया करने की भूख उनकी कला में दिखती रही है।

मो. सलीम को अपने कला सफर में कभी सम्मान की भूख नही रही, उनकी रंगों की अपनी अलग ही दुनिया थी। प्रकृति को हूबहू अपने कैनवास पर जल रंगों के मायाजाल से उतार देना उनकी कला का मुख्य आयाम था। पहाड़ की तरह शांत और शुद्ध मन उनका स्टूडियो था, कला जगत की राजनीति और कला बाजार की उठापठक से दूर रहने वाले इस कलाकार की अपनी दुनिया थी, जो हिमालय की तरह स्थिर और शांत थी, उनको कभी सम्मान की भूख रही ही नही।

1995 में उन्हें राज्य ललित कला अकादमी पुरस्कार, उत्तरांचल कला पुरस्कार (2000), मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति आदि द्वारा पुरस्कार दिए गए। मो. सलीम पिछले 6 दशक से कला प्रदर्शनी में प्रतिभाग करते रहे। देश के भिन्न भिन्न स्थानों में उन्होंने अपनी कला प्रदर्शनी के जरिये अपनी कला को जन मानस से पहुचाने का काम किया। अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी वे अपने कैनवास के साथ जीते रहे। हाल में कुमाऊं मंडल विकास निगम अल्मोड़ा के गेस्ट हाउस में आयोजित एसएसजे विवि की कला कार्यशाला (अगस्त 2021) में भी मो. सलीम रगों और कैनवास के साथ अंतः मन की यात्रा कर रहे थे।

कलाकार का दर्जा, धर्म और जाति के बंधन से ऊपर उठ जाता है। कलाकार इसे समझता है लेकिन कई बार यह होता है कि जिस समाज जिस दुनिया में वह कला साधना में लीन होता है, वह समाज उसे उसकी कला से नहीं, नाम से मूल्यांकन करने लगता है। मो. सलीम को भी ऐसे अनुभवों से दो चार होना पड़ा। अभावों की जिंदगी कलाकार के लिए एक नियति बन चुकी है इस देश में, और मो. सलीम भी इसके अपवाद नहीं थे।

हिमालयी सुषमा और गरिमा से अलंकृत इस उत्तराखंड राज्य को सचमुच में कला आश्रयदाता व कला संपदा सम्पन्न राज्य होना चाहिए था, किंतु राज्य गठन के दो दशक से भी अधिक समय हो जाने के बाद भी कलाकारों के स्वर्णिम स्वप्न को इस राज्य के भाग्य विधाताओं ने जमीन पर उतारने की जहमत नहीं उठाई। उत्तराखंण्ड में कलाकारों की वर्षों पुरानी मांग रही “ललित कला अकादमी” का निर्माण तक नही हुआ, जिससे यहां के युवा कलाकारों को आश्रय और प्रौढ़ रचनाधर्मियों को सम्मान तक नही मिला। यहां तक कि कलाकारों को न तो पहचान ही मिली और न ही उनकी कृतियां संरक्षित हुई। यहां की सरकारों ने युवा और प्रौढ़ रचनाधर्मियों दोनों के प्रति बेहूदा और गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया है, जो लोग भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक होने का दंभ भरते रहे, उन्होंने सत्ता मिलते ही कला संस्कृति और साहित्य को पूर्णतः विस्मृत कर दिया। यही कारण है कि आज मो. सलीम जैसे उत्तराखंड की कला के पितृ-पुरुष को आने वाले नव अंकुरित चित्रकारों को ढूढ़ना पड़ेगा। इधर उत्तराखंड फाइन आर्ट्स क्लब के संयोजक रविशंकर गुसाईं, कौशल कुमार, चंदन आर्य, प्रकाश पपनै, नीरज भट्ट, भास्कर भौर्याल, पंकज जायसवाल, संतोष मेर आदि ने उनके निधन पर गहरी शोक संवेदना व्यक्त की है।

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