पढ़िये प्रेरक लघु कथा—भीतर का आदमी
घर लौटते समय वह कुछ चिंतित सा था। अचानक एक स्वर उसके कानों से आ लगा-भाई साहब! आप तो नाहक परेशान हैं। आदमी के पास हर समस्या का समाधान है आजकल। तुम्हें एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताता हूँ, जिसे मैनें शायद ही कभी उदास देखा हो!
साधारण सी नौकरी, लेकिन ठाट-बाट देखो तो अश-अश कर उठो। दिखावा ऐसा कि आगन्तुक गुलाम बनकर रह जाये। बातों की कला में इतना माहिर कि कोई अपना उधार दिया पैसा भी मांगने आये, तो हाथ जोड़े खामोश ही लौट जाये। बड़े से बड़े ओहदेवाले भी झांसे में आकर चक्कर काटते हैं उसके दरवाजे पर कारीगर ही ऐसा है। मोहल्ले पड़ोस वालों में भी इसी बात से दबदबा है उसका। देर से ऑफिस पहुंचे, तो ऐसा बहाना छोड़ेगा कि साहब सीरियस और खुद नर्वस। मक्खन-बाजी और चमचागिरी तो कोई उससे सीखे। एक नम्बर का घूसखोर है साला, पर आरती दोनों टाइम करता है। बीबी-बच्चों वाला है, फिर बाहर ताक-झांक करने से नहीं चूकता- रशिया है पूरा। और तिकड़मी इतना, मजाल कि काम न बने ।
‘मेरा भी एक काम है, मिलवा सकोगे उससे?’ अनायास ही उसके मुख से निकल गया। ‘बेशक मिलिये, सामने वाला घर उसी का तो है।’
‘लेकिन, लेकिन इस घर का मालिक तो मैं हूँ।’
‘हां—हां, वो तुम्हीं तो हो।’ कहकर वह जोर से हंसा।
‘तो तुम कौन हो? ‘उसने तल्खी से पूछा।’ मैं?… तुम्हारे भीतर का आदमी।’ एक पल तो वह ठिठका। घृणा से थूकना चाहा उसने, परन्तु अगले ही पल गुनगुनाता हुआ भीतर चला गया, निश्चिन्त।
(कत्यूरी मानसरोवर के अंक जुलाई—सितंबर—1997 से साभार)