कोरोना काल : भूखों मरने की नौबत आ गई है लोक गायिका कमला देवी के सामने, ये दर्द गायें भी तो किस के सामने

बागेश्वर। आधुनिकता के इस दौर में पहाड़ की सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजने का यदि कोई काम कर रहा है तो वे लोक गायक और कलाकार…

बागेश्वर। आधुनिकता के इस दौर में पहाड़ की सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजने का यदि कोई काम कर रहा है तो वे लोक गायक और कलाकार ही हैं। पहाड़ के चाचड़ी-झोड़ा, नियोली-छपली,राजुला-मालूशाही,जागर,हुड़की-बौल आदि गायन अब विलुप्त होने लगे हैं। कारण सरकार की बेरुखी, लोक गायन के साथ ही लोक गायकों की आज कोई कदर नहीं हो रही है। बागेश्वर के लखनी गांव की लोक गायक कमला देवी की हालत तो यही बयां करती है।पिछले 16 साल से पहाड़ के लोक-गायन की धरोहर संभाले कमला देवी आज तक एक अदद पहचान की मोहताज हैं।

दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों में अपनी सुरुली आवाज से पहाड़ी लोक-गायन का रंग बिखेरने वाली गायिका से जिम्मेदार लोग ही पूछे की आप कौन तो एक गायक के लिए और सरकार के लिए इसे शर्मनाक और क्या हो सकता है। वैसे उत्तराखंड के लोक कलाकारों को मरने के पश्चात ही पहचान मिलती है,जब तक जिंदा हैं उनकी कला का कोई महत्व ही नहीं मिलता है न सरकार से ना ही लोगों से। इसका जीता जागता उदाहरण लोक गायिका कबूतरी देवी हैं ।लोक गायकों तो बस मिलती है तो सिर्फ उपेक्षा।

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लोक गायिका कमला देवी ने बचपन में अपने पिता को लोक गीत गाते सुना। सुनते सुनते वे कब गाने लगीं उन्हें भी नहीं पता। मां-बाबा से गाने की बात की तो उन्होंने साथ देने के बजाय 14 साल की उम्र में ही शादी कर घर से रुखसत कर दिया। कुछ सालों बाद घर की आर्थिक स्थिती सही नहीं होने पर पति गोपाल राम के साथ भवाली चली गई। वहां उन्होंने एक ढाबा खोल लिया। ढाबे में खाना बनाती हुए भी वह लोकगीत गुनगुनाते रहती।

इसी दौरान अल्मोड़ा के लोक कलाकार शिरोमणि पंत ने उन्हें सुना और नैनीताल शरदोत्सव में उन्हें गायन का मौका दिया। तब से कमला देवी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वो बागेश्वर की ऐतिहासिक उत्तरायणी में पिछलें कई सालों से गायन कर लोगों को पहाड़ के सांस्कृतिक लोक गायकी से रुबरु करा रही हैं। वे दिल्ली, मुुबंई, कोलकत्ता,जयपुर, पटना,हल्द्वानी, देहरादून और भी कई स्थानों में जाकर पहाड़ की संस्कृति की छटा बिखेर चुकी हैं। इन्हीं कार्यक्रमों से उनके 8 लोगों के परिवार को दो जून की रोटी नसीब होती थी।

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कोरोना काल के दौरान पिछलें 7 महीने से उन्हें कोई काम नहीं मिला है और ना ही सरकार से कोई आर्थिक मदद। अब परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई है। ऐसे में मानवीय संवेदना के संवाहक की भूमिका निभा रहीं लोक गायिका की व्यथा और भी गहरी है क्योंकि वे ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं होने के कारण सोशल मीडिया का सहारा भी नहीं ले सकती हैं। ऐसे में खाली बैठ आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहीं हैं। सरकार को विचार करना चाहिये कि लोक कलाकारों के लिये कोई प्रबंध किया जाये क्योंकि वे कहां जाकर किससे मांगेंगे।

सरकारों ने जिस तरह से दूसरे राज्यों से घर लौटे बेरोजगारों को रोजगार देने की मुहिम छेड़ी है, उसी तर्ज पर लोक कलाकारों के लिए विशेष नीति बनाकर उन्हें कुछ आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाकर उनके तनाव को कम करने की जरूरत है ताकि वो समाज में आये तनाव को कम कर सके। जहां कला व कलाकार का सम्मान होता है, वहीं विकास के साथ-साथ परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों का सम्मान तथा संरक्षण भी होता है। यदि हम कला व कलाकार का सम्मान करेंगे, तभी हम अपनी धरोहर को सहेज पाएंगे।

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