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Bageshwar Special: स्वतंत्रता सेनानी स्व. खीमानंद पन्त की आहट से ही हिलती थी ब्रिटिश हुकूमत


  • पिता के बड़े कारोबार को छोड़ स्वतंत्रता संग्राम में कूदे थे
  • एक बार मृत समझकर लाशघर में रख दिया था

दीपक पाठक, बागेश्वर
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. खीमानंद पन्त का जन्म सन् 1903 तत्कालीन अल्मोडा जनपद के मल्ला कत्यूर (गागरीगोल) में हुआ था। इनके पिता दयाराम पन्त का कारोबार गरुड़, गागरीगोल, ग्वाड़ पजेना और हल्द्वानी में फैला था। परिवार के लोग व्यापार एवं ठेकेदारी में व्यस्त रहते थे। ये अपने व्यवसाय में धनी और बेहद सम्पन्न थे। स्व. दयाराम पन्त की सामाजिक एवं आर्थिक प्रतिष्ठा और सम्पन्नता को देखते हुए तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने उनको रायबहादुर की उपाधि से नवाजने की पेशकश की थी, जिसे उनके परिवार ने देशहित में ठुकरा दिया, क्योंकि इनका परिवार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में शामिल था।

सन् 1929 में राष्ट्रपिता महांत्मा गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन के तहत कुमांयू मण्डल में बागेश्वर जनपद के भ्रमण पर थे। यात्रा के दौरान जब गांधी जी दयाराम पन्त के निवास स्थान गागरीगोल पहुंचे, तो दयाराम पन्त ने वहां उपस्थित समस्त आन्दोलनकारियों का भव्य स्वागत किया एवं गांधी जी को रोकड़ थैली भेंट की। उसी दिन गांधी जी ने दयाराम पन्त से कहा कि आप स्वतंत्रता संग्राम आन्दोनल में अपने एक पुत्र को सक्रिय रुप से शामिल करें। गांधी जी के आग्रह को मानते हुए तब दयाराम पन्त के तीसरे पुत्र खीमानंद पन्त करोड़ों का कारोबार छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में सक्रिय रूप से कूद गये।
स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में स्व. खीमानंद पन्त ने अनेक क्षेत्रों का भ्रमण कर जागरुकता फैलायी। सत्य, अहिंसा और असहयोग के तहत अंग्रेजों के प्रत्येक कार्यों का बहिष्कार किया। जिसमें कई बार गम्भीर बहसें भी हुई। ब्रिटिशों की पकड़ से दूर रहने के लिए घर परिवार को छोड़ कर कई वर्ष अज्ञात स्थान पर निवास किया तथा आन्दोलन को उग्र रुप दिया। जिसमें उनकी माता लीला पन्त का सहयोग रहा। सन् 1941 में इन्होंने संगठन के आह्वान पर जनबल (जिसमें 15-16 गांवों के जन समुदाय तथा 15 जोड़े निशाण थे) के साथ स्वयं गिरफ्तारियां दीं। बताया जाता है कि ब्रिटिश सत्ता ने इन्हें कई प्रलोभन दिये, किंतु खीमानंद पन्त ने प्रलाभनों को अस्वीकार कर आन्दोलन और असहयोग को धार दी। ब्रिटिश सत्ता इनके प्रत्येक कार्य से घबराकर हिल जाती थी।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. खीमानंद पन्त को स्वतंत्रता संग्राम में 03 मार्च 1941 को धारा 38/121 डीआईआर के अधीन अदालत उठने तक का कठोर कारावास और 50 रुपये जुर्माना नहीं देने पर चार (04) माह का कठोर कारावास होने का आदेश हुआ था। इन्हें 15 मार्च 1941 को बरेली जेल स्थानान्तरित कर दिया गया। इसके बाद इन्हें 28 सितंबर 1942 को धारा 436 आईपीसी के तहत 06 साल का कठोर कारावास का आदेश हुआ। तत्पश्चात इन्हें 24 नवंबर 1942 को केन्द्रीय कारागार लखनऊ भेज दिया गया।
जब हिला ब्रिटिश शासन

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी खीमानंद पन्त का एक वाकया ऐसा है, जिससे ब्रिटिश शासन हिल गया था। दरअसल जब सेनानी खीमानंद केन्द्रीय कारागार लखनऊ में बंद थे, तो जेल में मिली यातनाओं एवं खराब भोजन की वजह से इनका स्वास्थ्य अत्यधिक खराब हो गया था और मरणासन्न हो गए। एक दिन जेल कर्मियों ने इन्हें मृत समझकर लाशघर में डाल दिया और इनके घर सूचना दे दी कि उनका स्वर्गवास हो गया है। जब इनके आन्दोलनकारी साथी सेनानी गोवर्धन तिवारी व हर गोविन्द पन्त आदि कई लोगों को इस बात की भनक लगी, तो उन्होंने उनकी लाश दिखाने की मांग की, लेकिन ब्रिटिश शासन ने मना कर दिया। इसका विरोध होकर उग्र हंगामा हुआ, तब उन्हें खीमानंद को दिखाया गया। साथी इस बात से हैरान हुए कि खीमानंद पन्त मरे नहीं हैं, बल्कि बेहोश हैं और उनकी नब्ज चल रही है। इससे जेल कर्मी सहित ब्रिटिश शासन हिल गया तथा ब्रिटिश शासन को आंदोलन का उग्र रूप लेने का भय सताने लगा, तो उसने बीमार खीमानंद पंत का इलाज करवाना पड़ा। इनके घर वालों को जिन्दा होने की सूचना छः महीने बाद मिली। इनकी पत्नी लीला पन्त ने ब्रिटिश शासन द्वारा पति के स्वर्गवास की सूचना को नहीं माना। स्वयं खोजबीन की और धैर्य बनाए रखा। आजादी प्राप्त होने के बाद खीमानंद पन्त ने किसी भी प्रकार का पद नहीं लिया, पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी ने 15 अगस्त 1972 को उन्हें ताम्र पत्र भेंट कर सम्मान दिया। आजादी के बाद महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी खीमानंद पंत का सम्पूर्ण जीवन सामाजिक रहा है और वे हमेशा सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहे।

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