CNE Special: बाबा नीम करौली की लीला स्थली है कैंची धाम

➡️ 15 जून 1964 में मंदिर में स्थापित हुई थी हनुमान जी की प्रतिमा‼️विस्तार से जानिए: त्रिकालदर्शी बाबा नीम करौली और कैंची धाम का रिश्ता‼️कौशल…

➡️ 15 जून 1964 में मंदिर में स्थापित हुई थी हनुमान जी की प्रतिमा
‼️विस्तार से जानिए: त्रिकालदर्शी बाबा नीम करौली और कैंची धाम का रिश्ता‼️
कौशल किशोर सक्सेना, अल्मोड़ा

हल्द्वानी से अल्मोड़ा की ओर मोटर मार्ग पर भवाली से थोड़ी ही दूरी पर इठलाती बलखाती एक छोटी सी नदी नैनीताल एवं अल्मोड़ा जनपदों की सीमा रेखा को खींचती हुई बहती है। इस नदी को बाबा नीम करोली ने उत्तर वाहिनी नाम दिया। उत्तर वाहिनी के तट पर भवाली से सात किमी आगे अल्मोड़ा की ओर मोड़ घूमते ही सिन्दूरी रक्तवर्णी आभा वाले मंदिरों के शिखर दूर से ही चमकने लगते हैं। मंदिर ज्यों-ज्यों नजदीक आते हैं, राममयी धुने आपका स्वागत करती हैं। पैंतीस सौ फिट की उंचाई पर बसाया गया यह कैंची धाम है जो संत परम्परा के अग्रणी बाबा नीब करौरी (नीम करौली) की मुख्य लीला स्थली रहा है।

कैंची में मंदिर से आती संगीतमय लयबद्व राम नाम जप की स्वर ध्वनियां बरबस अपनी ओर खींचती हैं। यह वह सिद्ध स्थल है जहां सिद्ध संत सोमवारी बाबा साधनारत रहे, पंजाब के ख्यातिनाम संत कमलागिरी ने धूनी प्रज्जवलित की और संत शिरोमणि बाबा नीब करौरी ने यहां मंदिर स्थापित कर इस स्थान को जग चर्चित कर दिया।
इस स्थान पर बाबा नीब करौरी का आगमन सम्भवतः मंदिर स्थापित करने के उद्देश्य से हुआ था लेकिन बाबा के यहां निवास के बाद यह स्थान उनकी लीला स्थली के रूप में भी विकसित हो गया। तब यह स्थान देवदार के सघन वनों से घिरा हुआ था। आबादी के नाम पर जनसंख्या बहुत विरल थी। अल्मोड़ा की ओर जाने वाली पक्की सड़क इस स्थान से गुजरती थी। इसके बांयी ओर गर्गाचल पर्वत चोटियां हैं। गर्गाचल पर्वत स्कन्द पुराण के मानस खंड में अपनी महिमा के लिए पहले से ही वर्णित है। बाबा नीम करौली त्रिकालदर्शी थे। संत पुरूष जिस स्थान पर भी निवास करते हैं वह स्थान तो वैसे ही सिद्ध स्थानों की श्रेणी में आ जाता है। बाबा नीम करौली ने भी सिद्ध संत सोमवार गिरी की इस स्थली को अपने दिव्य चक्षुओं से पहचान लिया। और इसके महत्व को आंक कर यहां पर मंदिर स्थापित करने का विचार किया।

कैंची में पूर्णानंद तिवारी नामक एक सज्जन रहा करते थे। श्री तिवारी से एक भेंट में बाबा ने पहले ही कह दिया था कि अब उनसे बीस वर्ष बाद मुलाकात होगी। बीस वर्ष के अन्तराल के बाद बाबा की इन पूर्णनंद तिवारी पर कृपा हुई जब उन्होनें श्री तिवारी के घर पहुॅंचकर उनसे संत सोमवारी बाबा की हवन वेदिका को दिखाने का आग्रह किया। दूसरे दिन बाबा फिर आये और उन्होंने अपने साथ आयी सिद्धी मां, हरिदास बाबा आदि को लेकर नदी पार सोमवारी बाबा की हवन वेदिका को खोज कर इस स्थान को चौरस करवा चबूतरे के निर्माण करने के आदेश दिये। इस कार्य में अनेक स्थानीय व्यक्तियों ने श्रमदान किया था। लेकिन भूमि वन विभाग की थी इसलिए चौकीदार द्वारा जब आपत्ति उठाई गयी तो उसी समय बाबा ने तत्कालीन चीफ कन्जरवेटर को बुला कर लिखा पढ़ी करवाई। चौधरी चरणसिंह उस समय प्रदेश के वन मंत्री थे। उन्होने इस भूमि को विभाग से लीज पर आश्रम व मंदिर के लिए दिये जाने के आदेश कर दिये। बाद में जब चरणसिंह बाबा के दशर्न के लिए आये तो बाबा ने उन्हें प्रधानमंत्री हो जाने का आशीर्वाद दिया। बाबा का आशीर्वाद फलित भी हुआ। बाबा ने अपने भक्त हरिदरास बाबा को निर्देश देकर वर्तमान आश्रम का कार्य प्रारम्भ करवाया।

मंदिर निर्माण के प्रथम चरण में जिस स्थान पर बाबा सोमवार गिरी की हवन वेदिका थी उस स्थान पर चबूतरा निर्मित किया गया और उस पर हनुमान विग्रह की स्थापना की गयी। इसी हनुमान मंदिर के पीछे वह गुफा है जिसमें सोमवारी महाराज रहा करते थे। हनुमान मंदिर के बाद शिवालय, लक्ष्मी नारायण मंदिर की स्थापना हुई। सामने की ओर बाबा ने विंध्यवासिनी को स्थापित किया। बाबा के समाधि होने के बाद मुख्य द्वार के पास भवन में वैष्णवी देवी को स्थापित किया गया। वैष्णवी देवी के मंदिर में अब नाम कीर्तन होता है। शिवालय में शिव-पार्वती, गणेश और कार्तिकेय के अतिरिक्त शिवलिंग प्रमुख रूप से स्थापित है। जिस दिन इस मंदिर में पवनसुत हनुमान जी की प्रतिमा स्थापना हुई उस दिन बाबा ने हनुमान जी की प्रतिमा को अपने हाथ से दुग्धपान करवाया था। इस अलौकिक घटना की झलक बाबा के भक्तों ने स्वंय देखी थी। 15 जून 1964 को मंदिर में हनुमान जी प्रतिमा की स्थापना की गई और तभी से 15 जून को स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

इसके बाद तो मंदिर परिसर में नित नये निर्माण होते चले गये। रामकुटी, कृष्ण कुटी, विष्णुकुटी, राधा कुटी, श्यामकुटी जैसी अनेक कुटियों का का निर्माण होता चला गया। राधा कुटी में स्वंय बाबा निवास करते थे। जबकि कृष्ण कुटी में सिद्धी मां निवास करती थीं। कुटिया के बरामदे में वह कम्बल श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ रखा रहता है जिसका प्रयोग बाबा करते थे। इन कुटियाओं में बाबा की नाना मुद्राओं केे बड़े छायाचित्र लगेे हैं।

कैंची मंदिर परिसर में मंदिरों के बगल में लगा हुआ विशाल आश्रम है। इसी आश्रम में वह विशाल शिला है जिस पर प्रायः मौज के क्षणों में बाबा आ विराजते थे। शिला पर अतीस का विशाल वृ़क्ष अपनी छाया कर रहा है जो सूख कर ठॅूंठ हो चुका था और बाबा ने अपनी कृपा से उसे पुनः जीवन दान देकर हरा कर दिया। आश्रम की सीमा में ही वह विशाल हवनकुुंड भी है जहां नवरात्रियों , गुरू पूर्णिमा आदि अवसरों पर पर हवन सम्पन्न किये जाते हैं। भक्तों की सुविधाओं के लिए आश्रम का आवासीय परिसर भी है।

मंदिर परिसर में सिन्दूरी लाल शिखरों वाले देवालय से अलग धवल संगमरमर से बना एक भव्य मंदिर और भी है। यह बाबा का समाधि मंदिर है। जहां बाबा विग्रह रूप मे विद्यमान हैं। बाबा की पवित्र भस्म के कलश को इस स्थान पर भूमिगत कर यह मंदिर बनाया गया है। बाबा के विग्रह की स्थापना 15 जून 1976 को की गयी। भक्त बाबा के इस मंदिर में बैठ कर उनके श्री चरणों में ध्यान लगाते हैं।

यदि इस आश्रम को समर्पित व्यक्तित्वों की चर्चा न की जाये तो यह प्रस्तुति अधूरी रहेगी। वे हैं – श्री सिद्धी माॅं और श्री जीवन्ती मां तथा आश्रम के संचालक विनोद जोशी। श्री सिद्धी मां को बाबा कात्यायनी देवी ही कहा करते थे। बाद में श्री मां ने सर्व सम्पन्न अपने परिवार का त्याग कर महाराज की सेवा में उनके आश्रमों की सेवा के लिए निष्ठा पूर्वक अपना जीवन समर्पित कर दिया था। मां के निर्देशन में ही आश्रम के सारे कार्य होते थे। जबकि जीवन्ती मां ने अपने अध्यापन जीवन को छोड़कर संत भाव से आश्रम के लिए स्वंय को समर्पित कर दिया था। श्री विनोद जोशी को भी इसी प्रकार बाबा ने अपनी सेवा में लिया। वर्तमान में वे कैंची मंदिर के कार्य प्रबन्धक हैं। श्री सिद्धी मां का कक्ष अब उनकी स्मृतिकक्ष के रूप में संजोया गया है। इस कक्ष में उनकी पादुकाऐं स्थापित की गई हैं।आश्रम का अपना कार्यालय भी है। कैंची आश्रम का प्रबन्ध वर्तमान में न्यास द्वारा संचालित होता है।
प्रत्येक वर्ष 15 जून को मंदिर के स्थापना दिवस पर कैंची धाम में विशाल भंडारे का आयोजन होता है। इस अवसर पर लाखों की संख्या में श्रद्धालु कैंची आकर बाबा के प्रति अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, इतिहासकार एवं पुरातत्वविद् हैं।)

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