—पौष मास के पहले रविवार से होता है होली का आगाज
—हर साल चार चरणों पूरा होता है होली का सफर
चन्दन नेगी, अल्मोड़ा
शताब्दी पूर्व से ही सांस्कृतिक विरासत को संजोये रखने की अलख अल्मोड़ा नगरी जगाते आई है, शायद तभी इस नगरी को सांस्कृतिक नगर की संज्ञा मिली है। अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ ही होली परंपराओं को भी जीवंत रखने में इस नगर का अपार योगदान रहा है। यहां होली का आगाज डेढ़ सौ साल से भी पहले से हो गया था, ऐसा माना जाता है। गायकी में अल्मोड़ा का नाम उत्तराखंड का भातखंडे के रूप में भी जाना जाता है।
भले ही होली परंपराओं में आधुनिकता की चकाचौंध व कतिपय विकृतियों के कारण प्राचीन दौर की तुलना में अब काफी फर्क आ गया हो, लेकिन होली गायन में आज भी अल्मोड़ा गुरुवर दायित्व निभा रहा है। इस शहर में शास्त्रीय संगीत पर बैठकी होली गायन की परंपरा ने करीब डेढ़ सौ साल पहले दस्तक दी। पहली बैठकी होली मल्ली बाजार स्थित हनुमान मंदिर से शुरू हुई, ऐसा माना जाता है। जानकारों के मुताबिक सन् 1850—60 के दशक में रामपुर के महान संगीतज्ञ उस्ताद अमानउल्ला खां ने बैठकी होली का श्रीगणेश किया। इसके बाद संस्कृति प्रेमियों ने परम्परा को आगे बढ़ाया, जो आज भी बरकरार है। पुराने दौर में शास्त्रीय संगीत के जानकारों का नगर में आना—जाना लगा रहता था। प्रसिद्ध संगीतज्ञ उस्ताद अमानत हुसैन के कदम यहां पड़े। संस्कृति व परंपरा के संरक्षण में खासा नाम रखने वाली संस्था हुक्का क्लब अल्मोड़ा ने इस परंपरा को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यहां शास्त्रीय संगीत पर आधारित होली में तन्मयता, रसिकता, भाव भंगिमा तथा विशिष्ट ताल व शैली का समावेश होता है। अब कुछ अन्य जगहों भी ऐसी ही होली का आयोजन होली रसिक करते हैं। यहां खासकर ध्रुपद, भ्रमर, जै जैवंती, काफी, जंगला, सहाना, देश, विहाग, परज, भैरवी आदि रागों में होलियां गाई जाती हैं। यहां पुरानी परंपरानुसार आज भी बैठकी होली का क्रम पूष मास के पहले रविवार से शुरू होता है। 1
चार चरणों की होली
1— हर बरस पौष मास के पहले रविवार से बैठकी होली के पहले चरण का आगाज होता है। जो बसंत पंचती तक चलता है। इसमें आध्यात्मिक ज्ञान से ओतप्रोत होली गीत गाए जाते हैं।
2— दूसरा चरण बसंत पंचमी से महाशिवरात्रि तक चलता है। इसमें भक्ति भाव व बसंत से संबंधित होली गीत गाए जाते हैं।
3— तीसरा चरण महा शिवरात्रि से रंग एकादशी तक चलता है। इसमें बैठकी हेाली पूरे यौवन पर होती है। इसमें रंग व मस्ती से भरी होली गीतों का प्रभाव रहता है।
4— चौथा चरण रंग एकादशी से छलड़ी तक चलता है। इसमें बैठकी होली के साथ ही खड़ी होली का दौर शुरू हो जाता है। जिससे पूरा वातावरण होलीमय हो जाता है।
आधुनिकता पड़ी भारी
वह जमाना लद गया, जब पहाड़ कैसेट, टीवी, वीडियोग्राफी, सीडी प्लेयर, मोबाइल जैसी आधुनिक सुविधाओं से दूर था। पूरी तन्मयता व परंपरा के साथ होली गायन होता था और इससे एकजुटता व प्रेमभाव का संदेश मिलता था। हाल के दशकों से शराब के प्रचलन, मनमुटाव व उप संस्कृति का प्रभाव पड़ गया है। इससे पुरानी परंपरा पर विपरीत असर पड़ा है। इस बात का बुजुर्गों को अफसोस भी होता है। कभी होली महफिल में तन—मन से जुड़ने वाला समूह आज बिखर सा गया है। शराब व झगड़े के भय से अब तमाम लोग आधुनिक सुविधाओं के माध्यम से ही होली गीतों का लुत्फ उठाने लग गए हैं। ये स्थिति सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में सोचनीय
भी है।