अल्मोड़ा न्यूज: वनवास जैसी अवधि में सिर्फ तीन साल शेष, आशा की किरण जगाई और अब तक निराश छोड़ा

सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ावनवास जैसी 14 साल की अवधि पूरी होने में सिर्फ 3 साल शेष रह गए, मगर मांगें अभी तक धरी रह गई। यह…

सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ा
वनवास जैसी 14 साल की अवधि पूरी होने में सिर्फ 3 साल शेष रह गए, मगर मांगें अभी तक धरी रह गई। यह दीगर बात है कि कई बार उम्मीद की किरण जगा दी गई या सब्जबाग दिखाए गए, लेकिन अभी तक ​हासिल सिफर है। यहां बात हो रही है एसएसबी स्वयंसेवकों यानी गुरिल्लों की। जो 11 साल से धरना—प्रदर्शन करते आ रहे हैं, लेकिन मांगें हासिये पर पड़ी रह गई।
मालूम हो कि एसएसबी स्वयंसेवक पेंशन, नौकरी व अन्य सुविधाओं से संबंधित मांगों को लेकर करीब डेढ़ दशक पहले से संघर्षरत हैं। शुरू में जब कोई गौर नहीं फरमाया गया, तो उन्होंने 11 साल पहले एसएसबी स्वयंसेवक संघ के बैनर तले धरना—प्रदर्शन शुरू किया था। हद ये है कि तंत्र की बेरुखी के कारण यह धरना—प्रदर्शन आज तक जारी है। इतने वर्षों में महज जिलों व राज्य तक ही उनका आंदोलन सीमित नहीं रहा बल्कि उन्होंने कई बार देश की राजधानी दिल्ली में जाकर आवाज बुलंद की। सरकारों से वार्ताएं भी हुई और समझौते भी। कई बार सब्जबाग दिखाए और उम्मीद की किरण जगाई। किंतु आज तक न तो मांगें पूरी हो सकी और न ही धरना—प्रदर्शन थम सका। संघ के केंद्रीय अध्यक्ष ब्रहृमानंद डालाकोटी व जिलाध्यक्ष शिवराज बनौला बताते हैं कि जिस दौर में चीन द्वारा देश की सीमा पर अतिक्रमण की कोशिशें तेजी से की जा रही थीं और पाकिस्तान से कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ की जा रही थी। उधर म्यांमार से घुसपैठ हो रही थी। यहां तक कि चीन की शह पर बांग्लादेश व नेपाल तक भारत के आंखें दिखाने लगे थे। तब एसएसबी द्वारा एसएसबी स्वयंसेवक तैयार किए, जिन्हें गुरिल्ला नाम से जाना गया और उन्हें छद्म युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया, ताकि दुश्मनों का आसानी से मुहतोड़ जवाब दिया जा सके। तब सीमा पर सुरक्षा व चौकसी में एसएसबी स्वयंसेवकों ने अपार सहयोग दिया था। गुप्त सूचनाएं देने में अहम् भूमिका निभाई थी। उनका कहना है कि आज उनकी उपेक्षा हो गई है।

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