सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ा
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दशकों तक अभावों के दौर में डाक व्यवस्था ही संचार में इकलौती मददगार रही और इस व्यवस्था में जनमानस और डाक विभाग को जोड़ने में पत्र पेटिकाओं ने पुल का काम किया। भले ही बोलने व सुनने में नाम ‘पत्र पेटी’ साधारण सा जरुर है, लेकिन इन्होंने बड़ा काम निभाया है। दशकों-दशक से इन्होंने ना जानेे पत्रों के पुलिंदों का कितना बोझ झेला, इसका आंकड़ा जुटाना कठिन है। अनगिनत खतों और संदेशों के गवाह रही ये पत्रपेटियां आज आधुनिकता की आंधी में ओझल होते जा रही हैं। एक प्राचीन धरोहर के रुप मौजूद इन पत्र पेटियों की दशा आज उपेक्षा और अनदेखी के चलते जीर्ण-क्षीण होते जा रही है। जगह-जगह इनकी जर्जर दशा इनके दिन गर्दिश में होने का संकेत दे रही है।
भारतीय डाक व्यवस्था सालों नहीं, सदियों का लंबा सफर तय कर चुकी है। आजादी से पहले अंग्रेजों नेे अलग-अलग हिस्सों में अपने तरीके एवं जरूरत के हिसाब से डाक व्यवस्था को उन्नत बनाया, लेकिन उनकी डाक व्यवस्था सामरिक व व्यापारिक हितों पर ज्यादा ध्यान देने वाली थी। आजादी के बाद भारत में डाक प्रणाली को आम आदमी की जरूरत से जोड़कर नया रुप मिला और दशकों से पूरी दुनिया में यह व्यवस्था विश्वसनीय व नामी रही है। जब डाक व्यवस्था की बात आती है, तो इसमें डाक विभाग के महत्वपूर्ण अंग पत्र पेटी या लैटर बाॅक्स का ध्यान अनायास ही आ जाता है। पत्र पेटी ने डाक महकमे और आम जनमानस के बीच सेतु का काम किया है। सर्दी, गर्मी, बारिश हो या फिर तपती दोपहरी, लाल चादर ओढ़ी ये पत्र पेटियां शहर-शहर, गांव-गांव सड़कों के किनारे शोभायमान रहकर डाक व्यवस्था में एक अहम् भूमिका निभाते रही हैं। इनके महत्व का अंदाजा बस इस बात से लगाईये कि इनके बिना पत्र डाक विभाग तक पहुंच ही नहीं सकते थे। पिछले कई दशकों से ना जाने कितने कुशलक्षेम व संदेश की पातियां, शादियों के कार्ड, लोक पत्र, ग्रीटिंग कार्ड, जमीन संबंधी कागजात, प्रतियोगी परीक्षाओं के बुलावे पत्र तथा इनामी प्रतियोगिताओं में सवाल-जवाबों के पत्रों को इन पत्र पेटियों ने अपने आगोश में सुरक्षित समेटा और गंतव्य तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की होगी।
पत्र पेटियों का इतिहास काफी प्राचीन रहा है। आजादी उपरांत ने देश के कोने-कोने में इनकी जगह बनी। भारत में पुराने दौर में डाक प्रेषण में अहम् भूमिका निभाने वाले हरकारे हों या बाद में डाकिये, इन्हें पत्र यही पत्र पेटियां उपलब्ध कराती रही हैं। देश में डाकखाने की शुरुआती दौर में इन पत्र पेटियों को ब्रिटेन से लाया गया था। पहले ये लैटर बाक्स विक्टोरिया के ताज के आकार रहे। बाद में कमल का आकार और फिर समय-समय पर जरुरत के हिसाब से इनका रूप बदलता रहा। बाद में साधारण सिलेंडर आकार के लैटर बॉक्स सर्वाधिक पसंदीदा रहे, जो सभी जगह चले। सन् 1866-79 के मध्य इन बाक्सों को लाल रंग से रंगा गया था। भारत में डाक व्यवस्था के विकास के साथ ये लैटर बाॅक्स गांव-गांव तक पहुंच गए। इनका इतिहास पुराना होने के साथ ही संचार के साधनविहीन दौर में जनमानस को संचार सुविधा देने वाला एकमात्र साधन यही पत्र पेटियां रही। जहां एक ओर हर साल डाक विभाग इनका संरक्षण व रंगरोगन करता रहता था, वहीं आम जन इसे बेहद प्यार व अपनत्व की भावना से देखता था। कभी इनमें एक अदद पाती डालने के लिए लोगों की भीड़ रहती थी, तो कभी पत्रों से खचाखच भरे इन पेटियों से डाकिये बड़ी सावधानी से पत्रों का पुलिंदा निकालते दिखते थे।
करीब-करीब दो-ढाई दशक पूर्व तक पत्र पेटियों का रूतबा बना रहा। विज्ञान ने निरंतर प्रगति की और संचार क्रांति की आंधी बही। आम जन या सरकारी तंत्र, सब उसी आंधी में बहने लगे और इसकी गांज अभावों के दौर में अहम् योगदान देने वाली इन पत्र पेटिकाओं पर गिरनी शुरू हो गई। अब इनका इस्तेमाल को काफी कम हो गया है। पत्र व्यवहार के सिलसिले में कमी देखने में आई है। अब लोग पत्र के स्थान पर मोबाइल से सेकेंड में संदेश पहुंचा रहे हैं या सीधे बात कर कुशलक्षेम ले रहे हैं। करीब-करीब दो-तीन दशकों में ही इनकी उपेक्षा का ऐसा आलम देखने में आया कि आज ये नामी पत्र पेटिकाएं अपनी पहचान खो रही हैं। एक दौर था जब अपने क्षेत्र में पत्र पेटिका लगवाने के लिए लोग एड़ी-चोटी का जोर लगाते थे, लेकिन आज यही पत्र पेटिकाएं गर्दिश के दिन झेलने लगे हैं। वर्तमान में बेहद जरूरी होने पर ही लोग इनका इस्तेमाल कर रहे हैं या यह गरीब तबके के लोगों के इस्तेमाल की चीज रह गये हैं। पत्र लेखन की पुश्तैनी परंपरा गायब होने लगी है। इस संचार क्रांति के युग में ‘डाकिया आया, डाक लाया’ जैसे स्वर अब मोबाइल की रिंगटोन बन गए हैं। विज्ञान की प्रगति होना और संचार क्रांति का आना बहुत अच्छी व सुखदाई बात है, लेकिन इसका अर्थ ये कदापि नहीं है कि पुरानी धरोहर के रूप में मौजूद इन पत्र पेटिकाओं को उपेक्षित छोड़ दिया जाए या इनके इतिहास को भुलाकर इनकी उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाए। आज इनकी हालत दुर्दशाग्रस्त है। कहीं ये बाक्स अतिक्रमण से ओझल हो गए, कहीं इन्हें जंग खा रहा है और कहीं इनकी लाल चमड़ी उधड़ गई हैं, लेकिन स्वार्थ व बेरुखी का आलम ये है कि इनकी सुध न तो आमजन को है और न ही महकमे को। विभाग इन्हें सहेज कर रखने का बीड़ा उठाने की जरूरत नहीं समझ रहा है, जबकि इन्हें संरक्षित व सुरक्षित रखने की जरूरत समझी जानी चाहिए।
रंगकर्मी को पत्र पेटियों की दुर्दशा से पीड़ाः सामाजिक कार्यकर्ता एवं प्रसिद्ध रंगकर्मी गोपाल सिंह चम्याल पत्र पेटिकाओं की दुर्दशा ने नाखुश हैं। उन्होंने इस उपेक्षा का उल्लेख करते हुए अपने बयान में कहा है कि धारानौला खड़ी मार्केट समेत कई जगह डाक विभाग का पत्र पेटियां जीर्ण-क्षीण हालत में हैं। आज जो भी लोग उनमें पत्र डालते हैं। तो जर्जर हालत होने से बारिश में चिट्टियां खराब होती हैं। वह कहते हैं कि इनके उचित रखरखाव के लिए डाक विभाग से स्थानीय लोग अनुरोध कर चुके हैं, लेकिन फिर भी विभाग उदासीनता का ही परिचय दे रहा है। श्री चम्याल ने डाक विभाग के मंडल निदेशक से निवेदन किया है कि इस मामले पर संज्ञान लेते हुए पत्र पेटियों की दशा सुधारी जाए।