समूचे कुमाऊं में पूरी श्रद्धा से मनाया हरेला पर्व, जानिये हरेले की अनूठी परंपरा!

सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ाअल्मोड़ा जनपद समेत समूचे कुमाऊं क्षेत्र में आज हरेला पर्व पूर्ण परंपरा व श्रद्धा से मनाया गया। घर—घर में मंदिरों में विशेष पूजा…

सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ा
अल्मोड़ा जनपद समेत समूचे कुमाऊं क्षेत्र में आज हरेला पर्व पूर्ण परंपरा व श्रद्धा से मनाया गया। घर—घर में मंदिरों में विशेष पूजा अर्चना के साथ हरेला चढ़ाया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम देवता के मंदिरों में सामूहिक रूप से हरेला चढ़ाया गया। इसके जरिये सुख—समृद्धि, अच्छी फसल व हरियाली की कामना की गई। इस मौके पर विविध प्रकार के पुष्पों, फलदार व छायादार पेड़ों के पौधे रोपे गए। उत्तराखंड में हरेला पर्व की अनूठी परंपरा है।
हरेला बोने का तरीका
श्रावण मास शुरू होने से ठीक नौ दिन पहले आषाढ़ मास में हरेला बोया जाता है। इसके लिए विशेष प्रकार की छोटी—छोटी टो​करियों का चयन किया जाता है। जिसमें शुद्ध मिट्टी डालकर गेहूं, धान, जौ, उड़द, गहत, सरसों इत्यादि 5 अथवा 7 प्रकार के बीजों को बोया जाता है और सूर्य की रोशनी से दूर रखा जाता है। प्रतिदिन इनमें पानी छिड़का जाता है। नवें रोज पाती की टहनी से इसकी गुड़ाई करने की परंपरा है और दसवें रोज यानी श्रावण मास के पहले दिन काटा जाता है। इतने दिनों में इसके पौधों की लंबाई करीब 4 से 6 इंच तक बढ़ जाती है। इसके बाद घर के बुजुर्ग/वरिष्ठ विधिवत मंदिर में पूजा—अर्चना के साथ इसे देवताओं को चढ़ाते हैं और घर के सभी सदस्य इसे शीश चढ़ाते हैं। मान्यता के अनुसार हरेला पर्व से घर में सुख समृद्धि आती है और फसल अच्छी होने के साथ ही प्रकृति हरी भरी रहती है।
साल में तीन बार हरेला
मूल रूप से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाने वाला हरेला पर्व साल में तीन बार मनाया जाता है। पहला हरेला चैत्र मास के प्रथम दिन बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है। इसके बाद श्रावण मास में सावन लगने से नौ दिन पहले बोया जाता है और श्रावण मास के प्र​थम दिन काटा जाता है। तीसरा हरेला आश्विन मास के नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे को कटता है। चैत्र व आश्विन मास का हरेला खास तौर पर मौसम परिवर्तन का सूचक माना जाता है। चैत्र मास का हरेला गर्मी आने और आश्विन मास का हरेला सर्दी आने का सूचना देता है, जबकि श्रावण मास का हरेला हरियाली व पर्यावरण से जुड़ा है। साल के तीन हरेला पर्वों में से श्रावण मास का हरेला पर्व की खास महत्ता मानी जाती है। जो समूचे कुमाऊं में धूमधाम से मनाया जाता है। इसकी वजह मानी जाती है कि हिमालय में भगवान शिव का वास है और श्रावण मास भगवान शिव को अति प्रिय है। यह पर्व हरियाली का प्रतीक भी है।
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उत्तराखंड की भूमि को शिव भूमि (देवभूमि) कहा गया है, क्योंकि कैलाश (हिमालय) में ही भगवान शिव का निवास माना गया है। यहीं वजह है कि श्रावण मास के हरेला के दौरान डिकारे सजाने की भी अनूठी परंपरा है। इसमें शुद्ध मिट्टी से भगवान शिव, पार्वती व गणेश की मूर्तियां बनाई जाती हैं और उन्हें प्राकृतिक रंगों से सजाया—संवारा जाता है। इन्हीं को स्थानीय भाषा में डिकारे कहा जाता है। हरेले के दिन इनकी पूजा अर्चना होती है।

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