देहरादून। वन मंत्री हरक सिंह का रावत का अगले विधानसभा चुनाव में मैदान में न उतरने के बयान के राजनैतिक गलियारों में अलग अलग निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। दरअसल कांग्रेस के विधायकों के भाजपा में शामिल होने के मामले में विधायकों की अगुवाई करने वाले हरक रावत अपने ही बुने हुए जंजाल में इतनी बुरी तरह से फंसे हुए हैं कि उनके पास फिलवक्त राजनीति छोड़ देने का दम भरने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। आज एक खबरिया चैनल से बातचीत में उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने अपने निर्णय से भाजपा हाईकमान को अवगत करा दिया है। ललेकिन अंत में वे यह कहना नहीं भूले कि पार्टी का जेसा आदेश होगा वे वैसा ही करेंगे।
दरअसल हरक भाजपा में शामिल तो हुए लेकिन किसी न किसी वजह से वे पार्टी में होते हुए भी पार्टी से अलग ही दिखाई पड़ते रहे। लेकिन हरक की हनक कम न हुई। सीएम भी उनके काम काज में दखल कम ही किया। नतीजा यह निकला की हरक का वन व श्रम मंत्रालय पर ऐसा एकाधिकार हुआ कि वे जो मन में आया करने के लिए आजाद से हो गए। अब साढ़े तीन साल बाद जब सीएम ने अपने अधिकार का उायोग करते हुए उन्होंने सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड से के अध्यक्ष पद से हटाया तो उन्हें यह नागवार तो गुजरा लेकिन वे स्वयं को कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं पा रहे थे। इसीलिए पिछले दो दिनों से वे सिर्फ इतना ही कह रहे थे कि वे सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत से इस बारे में बात करेंगे। यही नहीं वे पार्टी के अनुशासित सिपाही होने का अहसास भी कराते हुए कह रहे थे कि वे ऐसी बात वे मीडिया में नहीं पार्टी फोरम में कहेंगे।
आज जब उन्होंने भविष्य में चुनाव न लड़ने का ऐलान किया तब भी उन्होंने एक दीवार बनाने के ब जाए एक खिड़की अवश्य खुली रखी ताकि वे अपने ऐलान से यू टर्न लेने के लिए सहज रहें। पार्टी का आदेश मानने का उनका क थन यही वो दांव है। वर्ना ऐसा नहीं है कि हरक सिंह पार्टी से यह कहना चाह रहे हों कि वे राजनीति से विरत होकर संगठन में चले जाएंगे। और उन्हें वहां पुराने संघ चिंतक आसानी से पचा लेंगे।
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