स्किजोफेनिया एक गंभीर मानसिक रोग है।इस बीमारी से ग्रसत व्यक्ति अपने ही विचारों में खोया रहता है। हमेशा दूसरों को शक की निगाहों से देखता है। जैसे कर व्यक्ति उसके ही खिलाफ षडयंत्र रच रहा हो।
इस बीमारी के रोगी को अजीबो गरीब आवाजें सुनाई पड़ती है। उसे तरह तरह की परछाइयां दिखाई पड़ती हैं। अपने आप से ही बोलना, अकेले में ही हंसना और हाथों से तरह तरह की क्रियाएं करना उसका शगल बन जता है। ऐसा व्यक्ति आत्महत्या जैसे कदम भी उठा सकता है। मनोचिकित्सक डा. नेहा शर्मा बताती हैं कि ऐसे रोगी स्किजोफेनिया बीमारी के सामान्य स्तर पर गुमसुम रहते हैं। लेकिन जैसे जैसे रोग गंभीर होता जाता है। वे हिंसक भी होते जाते हैं। कई बार रोगी दूसरों को नुकसान भी पहुंचा देते हैं और कई मामलों में आत्महंता भी साबित होते हैं।
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यह बीमारी 15—16 साल की उम्र से ही शुरू हो सकती है। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में इसे देवी देवता का प्रकोप भी कहते देखा गया है।
डा. शर्मा बताी है कि यह बीमारी मस्तिष्क के न्यूरो कैमिकल्स जैसे डोपेमाइन व सेरोटोना के स्तर में परिवर्तन की वजह से होती है। यह बीमारी कई प्रकार के मनोवैज्ञानिक व सामाजिक कारण जैसे वातावरण का अनुकूल न होना, परिस्थितियों तालमेल न बिठा पाना और परिवेश में एकाएक आए परिवर्तन के कारण भी होती है। कुछ लोगों में इस बीमारी का कारण आनुवंशिक, तनाव, अशिक्षा व नशे के अधिक उपयोग के कारण भी पैदा हो जाती है।
वे बताती है कि यह बीमारी असाध्य नहीं है। इसे ठीक किया जा सकता है। इसमें रोगी का दवाइयों के साथ, मनोवैज्ञानिक जांच के साथ उसके परिवार और आसपास के परिवेश की जानकारी भी ली जाती है। बीमारी में दवाइयों के अलावा फैमिली थैरिपी, पर्सनल साइकोथैरिपी व काउंसिलिंग का सहारा लिया जाता है। वे कहती हैं कि ऐसे रोगी वर्षों तक परिवार व समाज से कअे रहते हैं। साइको थैरिपी य फमिली थैरिपी के माध्यम से रोगी को सामान्य बनाया जाता है। आमतौर पर स्किजोफेनिया के रोगी को चिकित्सालय में भर्ती करने की आवश्यकता नहीं होती है। आजकल युवा पीढ़ी इस रोग की चपेट में ज्यादा आ रही है। इसका मुख्य कारण नशे के प्रवृत्ति है। पहाड़ों में दस में से दो युवा इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं।