“नशा एक अभिशाप है: एक दशक में 30 फीसदी बढ़े नशेड़ी”

👉 समाज में नशे के फैलते जाल से बेहद चिंतित ‘द दून स्कूल देहरादून’ के गणित विभागाध्यक्ष चन्दन घुघत्याल 👉 घुघत्याल की कलम से तमाम…

“नशा एक अभिशाप है: एक दशक में 30 फीसदी बढ़े नशेड़ी”
👉 समाज में नशे के फैलते जाल से बेहद चिंतित ‘द दून स्कूल देहरादून’ के गणित विभागाध्यक्ष चन्दन घुघत्याल
👉 घुघत्याल की कलम से तमाम उदाहरणों के साथ नशे को लेकर निकला प्रेरक आलेख
चन्दन घुघत्याल, विभागाध्यक्ष गणित, द दून कालेज

आज की भागमभाग भरी जिंदगी में मानवीय संवेदनाओं का ह्रास हुआ है। जिसकी वजह से आपसी सौहार्द कम हुआ है, सतही और खोखले रिश्तों के कारण आपसी विश्वास में कमी आयी है। संयुक्त परिवारों में कमी, बाजारवाद और पाश्चात्य संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव तथा नैतिक शिक्षा में कमी की वजह से बच्चे, जवान, बूढ़े आसानी से पथ विचलित हो रहे हैं। परिणाम स्वरुप कई बुरी आदतें अपना प्रभाव बच्चों पर छोड़ रही हैं। वर्तमान में नशे का सेवन इन्हीं बुराईयों में से एक प्रमुख बुराई बनते जा रही है, जो कि हर आयुवर्ग के लोगों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। नेशनल ड्रग डिपेंडेंट ट्रीटमेंट (एनडीडीटी), एम्स की रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में भारत में नशा करने वालों की संख्या 30 प्रतिशत बढ़ी है और इसमें हर साल इजाफा होते चले जा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 16 करोड़ लोग शराबी हैं और हर साल नशे से करीब 7500 लोग मौत के मुंह में समां जाते हैं। इस नशे के खिलाफ वृहद जनजागरण अभियान की नितांत आवश्यकता है।

ऐसे पड़ती है नशे की नींव

हमारे चारों ओर ऐसी ही कई घटनाएं घटित होती हैं, जो कि नशे की ओर आसानी से खींच लेती हैं। शायद मुझ जैसे कई साथियों में जागरूकता रही होगी, जो नशे से बचे रहे। जब मैं कक्षा दस में पढ़ता था, तो हमारे इलाके का माहौल बहुत ज्यादा मोटिवेशनल नहीं था, इलाके में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जो बच्चों का बेहतर मार्गदर्शन कर सके। हम 10—12 लोग रोज पैदल ही 6—7 किलोमीटर दूर इण्टर कॉलेज में पढ़ने जाते थे। हमारे कई साथी रोज 8 बजे घर से निकलकर पास के जंगल में दिनभर छिपे रहते और शाम को 3—4 बजे वापस घर आ जाते थे। शायद उन्हें ऐसा करने में आनंद आता होगा। इनमें से कई छात्र भांग के पेड़ों से चरस निकालकर बीड़ी में भरकर उसका सुट्टा लगाकर मस्त हो जाते थे। दिनभर आनंदमय रहकर और धूप सेंक कर शाम को घर आ जाते थे। आखिर वे सभी ऐसा क्यों करते होंगे? वे बच्चे कभी अपने मां बाप के बारे में नहीं सोचते होंगे क्या? इनमें से कई तो हाई स्कूल भी नहीं कर पाए। क्या यह उस स्कूल की भी नैतिक जिम्मेदारी नहीं थी कि वे उन बच्चों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करे, जो महीनों विद्यालय से गायब रहते थे? यह हाल उस दौर में ज्यादातर विद्यालयों का था। उन दिनों हाईस्कूल और इण्टर का रिजल्ट ग्रामीण क्षेत्रों में 20—30 प्रतिशत तक ही रहता था।

देश के भविष्य को नशे से बचाना जरूरी

आज जब सोचता हूं कि यह डिवाइन डेस्टिनी ही होगी कि मैं और मेरे एकाध साथी उस माहौल में नशे से कैसे बच गए होंगे। अन्य साथियों को ऐसी कुबुद्धि क्यों आयी होगी? काश कोई प्रभावशाली व्यक्ति इन सभी को मोटीवेट कर पाता, तो शायद वे नशे की तरफ नहीं जाते। यह नशा व्यक्ति विशेष के साथ परिवार व समाज को भी बर्बाद कर देता है। आने वाली पीढ़ियां भी नशे के कारण बर्बाद हो जाती हैं। गनीमत थी कि उनदिनों गांजा और चरस का ही नशा ग्रामीण क्षेत्रों में था, यदि आज की तरह के महंगे नशे होते तो न जाने समाज की दशा क्या होती? आज तो हर स्कूल, जिम और खेल मैदान के आसपास नशा करने और करवाने वाले एजेंट मिल ही जाएंगे, जो कि नये—नये बच्चों को अपने जाल में फंसाने के लिए तरह—तरह के प्रपंच करते हैं। यह हाल पूरे भारतवर्ष में है और बच्चे नशे की गिरफ्त में आसानी से आ जा रहे हैं। हमें ठोस कदम उठाते हुए अपने बच्चों को नशे से बचाना होगा।

क्या है लत की दिमागी वजह

लत यानी एडिक्शन किसी भी चीज की हो सकती है, जैसे लोग काफी चाय पीते हैं, कई बच्चे विडिओ गेम बहुत ज्यादा खेलते हैं, आजकल कई एडल्ट भी तो घंटों फेसबुक या यू ट्यूब वीडियो देखते हैं, यह सभी चीजें लत कहलाती हैं। इन सभी लतों से आदमी की सृजनात्मकता का ह्रास होता है। मानसिक और शारीरक शक्ति में कमी तो आती ही है अपितु आर्थिक संशाधनों में भी कमी होती है। धूम्रपान, शराब और नशे के आदी हो गए लोगों में तो यह लत ऐसी घर कर जाती है कि व्यक्ति की सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। किसी भी लत को व्यक्ति विशेष छोड़ना तो चाहता है, लेकिन वह लत के आगे नत मस्तक सा हो जाता है क्योंकि यह लत उसे अपना गुलाम बना देती है। किसी भी लत या आदी हो जाने के क्या कारण हो सकते हैं? किसी भी नशे का पहला प्रभाव हमारे दिमाग पर पढ़ता है। हमारे दिमाग में एक सर्किट होता है, जिसे रिवार्ड पाथवे कहते हैं। जब दिमाग उत्तेजित होता है तो यह डोपामाइन नाम का कैमिकल छोड़ता है। डोपामाइन रिलीज होने पर व्यक्ति को आनंद की अनुभूति होती है। सभी नशे इतने खतरनाक होते हैं कि इनके उत्पाद दिमाग पर ऐसा असर दिखाते हैं कि लोग जल्दी ही नशे के आदी हो जाते हैं। डोपामाइन एक ऐसा कैमिकल है, जो दिमाग को कई अच्‍छी चीजें करने के लिए प्रेरित करता हैं। जब ब्रेन में बड़ी मात्रा में डोपामाइन कैमिकल रिलीज होता है, तो कई सकारात्‍मक भावनाएं जैसे नव ऊर्जा, नव प्रेरणा, गुद गुदी यादें, खुशी और सुकून आदि मन में पैदा होते हैं और व्यक्ति नेचुरली खुश रहता है। जब डोपामाइन कम रिलीज़ होता है, तो मन निराश रहता है, ऐसे में किसी प्रकार के नशे या ड्रग्स के सेवन से डोपामाइन रिलीज़ होता है और व्यक्ति नशे का आदी हो जाता है। यही से वह इन बाहरी तत्वों का दास बनने लग जाता है। स्वाभाविक ख़ुशी के बजाय चाय, कॉफी, धूम्रपान, शराब, नशा या फिर कोई और आर्टिफीशियल चीजों द्वारा डोपामाइन उत्प्रेरित करता है और इनके फांस में जकड़ जाता है। यही से अत्यधिक लत उसके सोचने समझने की शक्ति को कम कर देता है।

बुरे हालात: कापी—किताबों की जगह हाथों में नशा

हमारे समाज में शराब, सिगरेट, तंबाकू का सेवन आजकल बहुत आम सा हो गया है, लेकिन इसके अलावा भी लोग अलग अलग तरह के नशे करते हैं, जिनमें शराब, अफीम, चरस, गांजा (भांग), हेरोइन व कोकेन जैसे घातक नशीले पदार्थ शामिल है। कुछ लोग खांसी के सिरप, आयोडेक्स और कुछ नींद की गोलियों का इस्तेमाल नशे के रूप में करते हैं। इसके अलावा भी लोगों ने नशा करने के अलग अलग तरीके खोज रखे हैं। जैसे कोई पेट्रोल सूंघकर नशा करता है, कोई थिनर सूंघ कर तो कोई सिलोचन (टायर पंचर जोडऩे वाला) से नशा करता है। यह बहुत ही भयावह है कि 08 से 12 साल के बच्चे इस नशे की गिरफ्त में आ गए हैं। नशे के लिए यह बच्चे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। जिस उम्र में इन बच्चों के हाथों में कापी—किताब होनी चाहिए, उस उम्र में इनके हाथों में व्हाइटनर, सिलोचन और आयोडेक्स की शीशी नजर आती है।

नशे से कंगाली व मौत​ तक का सफर

जब भी मैं नशे और जुए की लत के कुप्रभाव की बात करता हूं तो मुझे अपने क्षेत्र के परुवा के परिवार की याद आ जाती है। परुवा का परिवार गांव के बाक़ी परिवारों से बहुत ही धनाढ्य परिवार था। धनाढ्य का मतलब उन दिनों खेतीबाड़ी, जेवर और बड़े—बड़े कांसे, तांबे व पीतल के बर्तनों वाले परिवार को कहते थे। परुवा के पास सब कुछ था, भाबरी बैल, हरिवाणावी भैंस, आदि उसके चौखट की शान बढ़ाते थे। पता नहीं कैसे परुवा को जुवे और शराब की लत पड़ गई। नशे और जुवे की ऐसी लत पड़ी कि उसने बर्तन, जेवर तो दूर खेत खलिहान तक बेच डाले। जल्द ही वह अकाल मृत्यु की गोद में समां गया। यह लत इतनी खतरनाक होती है कि व्यक्ति अपने बच्चों और परिवार के बारे में नहीं सोचता है। परुवा के बच्चों ने दर—दर की ठोकरें खाकर बमुश्किल खुद को संभाला है। नशे के कारोबारी धनवान या कमाने वाले को तो फंसाते ही हैं, साथ ही गरीब तबके के बच्चों को भी नशे का गुलाम बनाकर उन्हें ड्रग पैडलर बनाते हैं। किसी व्यक्ति के नशे के आदी होने के पीछे कई कारण होते हैं। जैसे कि उस व्यक्ति विशेष की अपब्रिंगिंग, आनुवंशिकता (जीन), लिंग, जातीयता व उसका सामाजिक परिवेश।

नशेड़ियों की असफल कहानियां देंगी सीख

नशे की लत एक क्रॉनिक, बार-बार रिपीट होने वाली बीमारी है। इससे दिमाग में लंबे समय तक चलने वाले कैमिकल बदलाव होते हैं, जो नशे की लत को छूटने नहीं देते। मै जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे अपने आसपास की कई छोटी—छोटी घटनाएं याद आती हैं। बड़े बूढ़े गांव में जब हुक्का या बीड़ी पीते थे, तो वह आसपास के बच्चों को हुक्का या बीड़ी पीने के लिए जाने अनजाने प्रेरित सा कर देते थे। मैंने कई बच्चों को उनके द्वारा फेंकी बीड़ी के टुकड़ों को शौक शौक में सुट्टा लगाते देखा है। इनमें से कई को उनके अभिभावकों ने पिटाई कर इस बुरी आदत के घेरे में आने से रोका, तो कई बेलगाम ही रहे। शौक शौक में फेंकी गयी बीड़ी के टुकड़ों से शुरू हुई यह दुर्गति यात्रा कईयों को नशे का आदी बना डाला। ऐसे ही आसपास घटने वाली कई सच्ची घटनाएं हैं, जिनको देखकर मन दुखी हो जाता है परन्तु इन घटनाओं का सच्चा चित्रण करने से आने वाली नशा रूपी महा बिपत्ति से कई को बचाया जा सकता है।इन नशेड़ियों की असफल कहानियों से कई नशे के शौक़ीन अपना जीवन और अपने बच्चों का जीवन तो बचा पाएंगे। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि जनजागरण से ही नशा और नशेबाजों से बचा जा सकता है।

परिवारों को कंगाल बना देता है नशा

नशे के शिकार अनगिनत परिवारों की कहानियां दिल दहला देती हैं। शेरू पढ़ाई में बहुत अच्छा था, उसके पिता दिल्ली में किसी गेस्ट हाउस में काम करते थे और वह अपनी मां और बहिन के साथ गांव में रहता था। बारहवीं करने के बाद पिता के साथ दिल्ली चला गया और किसी कंपनी में ऑफिस बॉय के रूप में काम करने लग गया। उसकी दोस्ती खोड़ा निवासी संजय और बीरु से हो गयी। ऑफिस के बाद शाम को वे रोज पार्टी करते थे। खाना खाओ या नहीं लेकिन पीना जरुरी होने लगा। पीने के साथ—साथ गांजा, चरस और अन्य नशा भी करने लगे। शेरू को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। पिता और अन्य रिश्तेदारों ने शेरू को संभालने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह तो ड्रग एडिक्ट हो गया था। हिम्मत हार कर उसको गांव में छोड़ आये। वहां भी वह नशे के लिए केरोसीन तेल और शराब पीने लगा। नशे के लिए मारपीट भी करने लगा। बिना खाये पीये केवल नशा करने से उसकी भी अकाल मृत्यु हो गयी और वह अपने पीछे अपने परिजनों को ग़मगीन हालत में छोड़ गया। निम्न व मध्यम तबके के परिवारों में मां—बाप को बच्चों से यही आशा होती है कि पढ़—लिखकर बच्चे परिवार की आर्थिक दशा सुधारेंगे, लेकिन नशे की लत परिवारों को कंगाल बना देती है।

‘नशा नहीं रोजगार दो’ जैसा जनांदोलन जरूरी

नशे के खिलाफ जन जागृति के लिए आर्य समाज मंदिर, गायत्री परिवार, चिन्मय मिशन, राम कृष्ण मिशन आदि कई सामाजिक संगठन समय—समय पर जागरूकता अभियान चलाते हैं। इन संघठनों से जुड़े लोग स्वयं निरब्यसनी होते हैं और समाज को भी निरब्यसनी बनाना चाहते हैं। देश विदेश में कई सामाजिक और जन सरोकारों की बातें करने वाले संघठन मानते हैं कि सरकारों को सबसे ज्यादा राजस्व शराब के व्यवसाय से प्राप्त होता है, तो सरकारें क्यों चाहेंगी कि लोग शराब और अन्य नशा न करें। इतिहास गवाह है इसीलिए शराब और नशे के खिलाफ जनांदोलन हुए। उत्तराखंड में भी 1984 में सरकार की गलत शराब नीति के खिलाफ उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन चला, पूरे उत्तराखंड में इस आंदोलन ने शराब माफिया की चूलें हिला दी थी और गांव—गांव में महिलाओं और बच्चों ने भी बढ़—चढ़ कर भाग लेकर शराबियों को बिच्छू घास लगाकर शराब नहीं पीने की कसम खिलाई। नशे का कारोबार करने वालों का मुंह कालाकर नशा नहीं बेचने दिया। कई सालों तक इस आंदोलन का प्रभाव रहा और लोग शराब पीने से डरने लग गए थे। आज उत्तराखंड को विशेषकर इस नशे के खिलाफ खड़े होने की नितांत आवश्यकता है। नशा नहीं अच्छी शिक्षा दो, चौबीसों घंटे बिजली दो, नशा नहीं अच्छी स्वास्थ्य सुविधा दो, ठेके नहीं अच्छी सड़कें दो आदि—आदि नारे बुलंद कर जन जागरण की आवश्यकता है।

दुर्घटनाओं की एक बड़ी वजह है नशा

खैर 1984 और 1994 के महा आंदोलनों ने उत्तराखंड को जागृत किया लेकिन जनांदोलन करने वालों को हासिये में धकेलने के कारण अब शायद ही कोई बड़ा आंदोलन हो पायेगा। भले ही जनांदोलनकारी अपने स्तर पर समाज को जागरूक कर रहे हैं और लोक नियंताओं की गलत नीतियो से समाज का ग्वाला भी कर रहे हैं। नशा करने वाले कई भयंकर दुर्घटना के शिकार हुए हैं, कई को सांप ने डस दिया, तो कई पहाड़ से गिरकर या नदी में डूबकर काल का ग्रास बने। अभी हाल ही में रानीखेत के पास राजन नाम के व्यक्ति की मौत तेंदुए के आक्रमण से हुई। राजन भी बीए करने के बाद महानगर में नौकरी करने गया, छोटी मोटी नौकरी कर गुजारा तो करने लगा किंतु दिल्ली में वह नशेड़ियों की संगत में पड़ गया। जो भी वह कमाता था नशे में फूंक देता था। थक—हार कर मां के पास गांव इस आशा में लौटा कि बूढ़ी मां को कुछ सहारा दे सके और नशे से बच सके, लेकिन नशे का आदी हो चुका राजन नशा नहीं छोड़ पाया और नशे की खोज में रोज बाजार जाता और अपने नशे का इंतजाम कर ही लेता था। नशे की हालत में वह अकेले पहाड़ का रास्ता तय करता और देर रात घर लौटकर बूढ़ी मां से खाना मांगता था। ममतामयी मां खाना परोसकर उसे समझाती थी। तेंदुए के खतरे से उसे सावधान रहने को कहती, लेकिन राजन की विवेकशीलता तो नशे ने खोखली कर दी थी। एक दिन रात भर वह घर नहीं लौटा, तो मां ने आसपड़ोस के लोगों से राजन का पता लगाने को कहा। दूसरे दिन जंगल में रस्ते से दूर झाड़ियों में उसकी तेंदुए द्वारा आधी खायी लाश मिली। बूढ़ी मां अपने राजन की इस दर्दभरी मौत पर मातम मचाती रही, शायद यही उसकी नियति रही होगी।

बेहतर व्यवहार व मार्गदर्शन देगा सही दिशा

यदि किसी बच्चे में नशे की प्रवृति हो भी जाती है, तो हमें उसका तिरस्कार नहीं बल्कि उसके प्रति अपनापन और प्यार दर्शना चाहिए। उसकी सामाजिक कार्यों में भागीदारी कराने का प्रयास करना चाहिए ताकि वह अपना अनादर और अपने को आइसोलेशन में ना समझे। ऐसी ही एक कहानी है संतोष की, जो कि ऊटी के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था। शौक—शौक में इ सिगरेट (वैपिंग) का आदी हो गया था, स्कूल वाले भी उसकी हरकतों से परेशान हो गए थे और उसको स्कूल से घर भेज दिया गया। उसके मां—बाप ने उसके साथ एक दोस्त की तरह का व्यवहार किया और उसके नशे की आदत और नशे के प्रकार के बारे में जानकारी हासिल की। उन्होंने स्वयं उसका भरपूर मार्गदर्शन किया, उसको अच्छे दोस्त और ख़राब दोस्तों के बीच के अंतर को समझाया। संतोष को पीयर प्रेशर से भी बाहर आने के लिए यह सलाह दी कि किसी से वह अपनी तुलना न करे। संतोष बहुत खुश था कि उसके मां बाप ने उसको समझा। वापिस अपने हॉस्टल लौटकर उसने अपने अध्यापकों और सहपाठियों का दिल जीता। उसने खेलकूद में खूब भाग लिया और मन लगाकर पढ़ाई की। कक्षा बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में वह 94 प्रतिशत अंक लाया।

जागरूक संगठनों को आगे आना होगा

हमारी सरकारों में कभी—कभी ऐसे लोग, लोक नियंता बन जाते हैं, जिन्हें सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं होता। दिल्ली सरकार की शराब नीति का दुष्परिणाम सर्वविदित हैं। उत्तराखंड में प्रस्तावित शराब नीति तो मानो देवभूमि के घर—घ​र को बार में तब्दील करने वाली थी। इस नीति के अनुसार किसी उत्तराखंड निवासी को अपने घर में 50 लीटर तक शराब रख​ने का अधिकार मिल गया था, जिसके लिए एक लाइसेंस उत्तराखंड सरकार से लेना प्रस्तावित था। धन्य हो महिला मंच जैसे जागरूक संघठनों की, जिन्होंने विरोध किया तो सरकार ने बहुत ही अच्छा निर्णय लेकर इस नीति को ही स्थगित कर दिया। हमें वास्तव में शराब, नशा, जुआ और अन्य समाज विरोधी गतिविधियों से खुद को बचाते हुए अपने परिवेश को​ भी बचाना है। एक अच्छा परिवेश विकसित मानसिकता को जन्मेगा।​

काश फिर चलती ऐसी नेक पहल

भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 2020—21 में नशा मुक्त भारत अभियान चलाया था। मंत्रालय द्वारा यह एक सही पहल थी और यह सच है कि नशा मुक्त भारत ही सुदृढ़ भारत का निर्माण करेगा। इस पहल को प्रभावी ढंग से एक मिशन क़ी भांति चलाये जाने क़ी नितांत आवश्यकता है। नशे के खिलाफ समाज में सक्रिय सभी संस्थाएं एकजुटता के साथ काम करेंगी और भारत सरकार नशे के खिलाफ कानून को सख्ती से लागू करेंगी, तो अवश्य हमारे नौनिहालों का भविष्य सुनहरा होगा। नशा मुक्त भारत के लिए सरकारी, अर्द्ध सरकारी और व्यक्तिगत स्तर पर हर जागरूक नागरिक को पहल करनी होगी। विशेषकर अपने बच्चों को यदि हर अभिभावक नशे से बचाने का प्रयास करेगा, तो स्कूल और कॉलेज स्तर पर नशे का नामो निशान मिट जायेगा, तभी नशा मुक्त समाज बनेगा।

निम्न सरीखी पंक्तियां दे सकेंगी प्रेरणा

नशे का करो प्रतिकार, बचाओ अपना घर संसार।
नशा एक अभिशाप है, न मिटने वाला महा पाप है।।
नशे का करो प्रतिकार, मचाती है नशा, हाहाकार।
नशा एक षड़यंत्र है, समाजविरोधियों का यन्त्र है।।
नाग का फन सा तंत्र है, बनाती गुलाम व परतंत्र है ।
नशा एक अभिशाप है, यह न मिटने वाला श्राप है।।

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