- प्रो. रमेश तिवारी ‘विराम’, मकरन्दनगर, कन्नौज
जेठ की तपती दोपहर। भयानक लू चल रही थी। बाजार सुनसान था। बाजार के बीचों-बीच कपड़े की बड़ी दुकान पर सेठ मंगतूराम गद्दी पर बैठे उंघ रहे थे। भरी दोपहरी में ग्राहक कोई था नहीं, और करते भी क्या ? उसी समय एक गरीब किसान बाजार से निकला नंगे पांव, फटी धेती, गंदी बनियान, सिर पर अंगोछा। उस किसान का गर्मी से बुरा हाल था। भयानक प्यासा था वह। पसीने से तर, किंतु हलक सूख रहा था।
प्यासे किसान ने सेठ जी की दुकान के एक कोने में रखा हुआ पानी का घड़ा देखा। घड़े के पास डुबकना और ग्लास टंगे हुए थे।
पानी दिख जाए तो प्यास और बढ़ जाती है। किसान दुकान के सामने आकर ठिठका और बड़े संकोच के साथ कहा, ‘‘सेठ जी पांय लागी।’’।
उसका स्वर सुनकर सेठ जी चौंके। आंखें खुलीं सिर उठा, उन्हें लगा कि ग्राहक आया है। मुंह में मिश्री घोलते हुए बोले, ‘‘कहो भाई क्या चाहिये।’’ प्यासा किसान बोला, ‘‘सेठ जी बड़ी प्यास लगी है। थोड़ा पानी पिला दीजिए।’’ सेठ जी के मुंह की मिश्री गायब हो गयी। उसकी जगह करेला आ गया। झुंझलाकर बोले, ‘‘बाहर पटरे पर बैठ जाओ, अभी हमारा आदमी आएगा वो पानी देगा।’’ इतना कहकर कूलर की हवा में सेठ जी उंघने लगे।
प्यासा किसान दुकान के बाहर पटरे पर बैठ गया। लू के थपेड़े उसका पसीना सुखा रहे थे। दस मिनट बीत गये। किसान फिर बोला, ‘‘सेठ जी बहुत प्यास लगी है, पानी पिला दीजिए।’’ सेठ जी झुंझलाये, ‘‘कहा न, आदमी आ रहा है, वह पिलायेगा।’’ किसान सिर झुकाकर बैठ गया। दस मिनट और बीत गये। प्यास के कारण उसका प्राण कण्ठ में आ रहा था। ‘‘सेठ जी………..।’’ किसान इतना ही बोल पाया था कि सेठ जी गुर्राये, ‘‘कहा ना कि आदमी आयेगा तब वही पानी पिलायेगा।’’ प्यासा किसान हाथ जोड़कर बोला, ‘‘सेठ जी थोड़ी देर के लिए आप ही ‘आदमी’ बन जाइए ।।’’