सुना है,
कभी यहां
महल खड़े रहते थे।
दुर्भेध्य,
जिनकी चाहरदीवारी के भीतर
पग वैरी न आने पाते थे।
सुंदर सुंदर अप्सराएं
लब्ध प्रतिष्ठित नृत्यांगनाएं
उनकी सेवा में तत्पर
प्रति पल, प्रति क्षण
रहतीं थीं।
थे सज्जित स्वप्नों से,
जो महल कभी,
हैं अशेष नहीं उनके
अब,
यहां खण्डहर भी कोई
मात्र,
विस्मृत सी होती किंचित
शेष स्मृतियां हैं केवल
कि,
कभी यहां महल खड़े रहते थे।
कवीन्द्र पन्त (एडवोकेट) अल्मोड़ा उत्तराखण्ड.
— महल 2
थिर खड़ा सदियों पुरातन
वह अशेष इतिहास का प्रतिमान
करता प्राच्य गौरव का उद्घाटन
बहु झंझावातों में वर्तमान।
अहे, विशाल पांखें फैलाए
रवि संग खेचर युग भी जाए
दीवारें क्या मौन बताएं
प्रस्तर भग्न जिनकी गाथा गाएं।
थे विस्तृत काल प्रवाह में स्थिर
तिमिर परिवर्तन में जो हुए अधीर
उन्हीं की भव्यता के व्योम पर अवस्थित
आज नव्यता होती गर्वित।
आज नव्यता के अवगाहक
मृगतृष्णा के अनुगामी
विस्मृत करते हैं क्यों तम पोषक
उन्नत प्राच्य सभ्यता निज द्रुतगामी।
आते जाते विविध जनों ने
सिमटते देखे कल के वैभव पवनों ने,
समझते, मौन इन भग्न अवशेषों को
मगर, शेष शब्द नहीं व्यथा कहने को।
अटल उच्च इतिहास के साक्षी
चिन्ह अमिट चिर संघर्षों के साक्षी
संचित अनुभव, युग युगों के परिवर्तन
लक्षित होते द्रुत काल प्रवाह के नव सर्जन।
थे सौन्दर्य के उपमान कभी
वैभव के थे प्रतिमान कभी
सुख गूंजता था जहां चहुं ओर
अब नीरवता का गर्जन घोर।
करती थी नवल प्रभात जहां नव जीवन का आह्लादन
करती थी प्रथम रश्मि जहां नव मंगल का उद्घाटन
गहराई अब वहां शून्य सी वीरानी है
दिखलाई देती प्रति खंड खंड में उनकी अमिट कहानी है।
- – कवीन्द्र पन्त (एडवोकेट) अल्मोड़ा उत्तराखण्ड।