देहरादून। लोकप्रिय कवि, लेखक और शिक्षक डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी की 81 वीं जयंती पर आज उनका भावपूर्ण स्मरण किया गया। देश के प्रख्यात गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने वक्तव्य में कहा है कि प्रारंभ से मैं मिथिला, काशी और कोलकाता में रहा हूं, इसलिए एक से एक विद्वानों से विद्वानों से से मेरा संपर्क रहा और उनसे प्रभावित भी मैं हुआ, लेकिन देहरादून आकर मुझे डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी से जो निकट संपर्क हुआ, तब मुझे लगा कि वे केवल विद्वान नहीं है, बल्कि विद्या को जन सामान्य तक पहुंचानेवाले भगीरथ हैं। देहरादून में आज वह नहीं हैं, लेकिन देहरादून का हर कोना आज भी अपने ‘गुरूजी’ को याद करता है।
एक अद्भुत व्यक्तित्व। समय के बहुत ही पाबंद। जहां भाषा -साहित्य की कोई गंध नहीं, वहां भी वे कवि गोष्ठियों और संगोष्ठियों के माध्यम से भाषा- साहित्य की अलख जगाते थे। उनके जाने से मेरा व्यक्तिगत नुकसान यह हुआ कि ओएनजीसी में मैं उनके साथ मिलकर बहुत सारी योजनाओं को कार्यान्वित कर रहा था, उनके चले जाने के बाद वह गति रुक गयी। दूसरी बात, नगर में जो साहित्य का माहौल वह उत्पन्न करते थे, वह भी थम सा गया है। हालांकि नगर में एक से एक एक साहित्यकार हैं, लेकिन जो सक्रियता, सामाजिक सरोकार और संस्कृति को जीवन के कण-कण में पहुंचाने का संकल्प उनका था, वह आज कहीं दिखता नहीं है। उनमें एक साथ कई प्रतिभाएँ थीं। उनका अध्यापन, काव्यपाठ, संचालन, प्रत्युत्पन्न-मतित्व, सकारात्मक सोच और सबको साथ ले चलने का कौशल विलक्षण था।
मेरी काबिलियत पर उनका अटूट विश्वास था। आज उनके न होने से.मैं कदम-कदम पर उनकी कमी अनुभव करता हूं। सच कहूं तो देहरादून मेरे लिए बिल्कुल उस गांव की तरह हो गया है जिसमें एक भी पेड़ ना हो ।आज उनके जन्मदिन पर मैं उन्हें प्रणाम करता हूं। कोरोना वायरस का संकट न होता, तो आज एक बहुत बड़ा समारोह होता, जिसमें नगर के सभी साहित्यकार उपस्थित होते। लेकिन यह संभव नहीं है, इसलिए हमलोग अपने-अपने घर से ही उन्हें नमन करते हैं।
कवयित्री और कथाकार डॉ विद्या सिंह नेअपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि सरस्वती के वरद पुत्र डॉ गिरजा शंकर त्रिवेदी एक सहृदय साहित्यकार होने के साथ-साथ एक संवेदनशील इंसान भी थे। यह उनके चुंबकीय व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति सदा के लिए उनका मुरीद हो जाता था। देहरादून में काव्यमय साहित्यिक वातावरण बनाने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय है। साहित्यिक अंत्याक्षरी का अभिनव प्रयोग उन्हीं की कल्पना की उपज थी।
विभिन्न कवियों की पंक्तियां लेकर उन्होंने वर्णक्रम से लगाया और दो पुस्तकों में उसे प्रकाशित करवाया।मैं इसे अपना सौभाग्य समझती हूं कि उनके मार्गदर्शन में मुझे साहित्य का ककहरा सीखने का अवसर मिला। डॉक्टर त्रिवेदी की मृदु भाषा, मर्मस्पर्शी शैली, चुटीली टिप्पणियां एवं उनकी वक्तृता उन्हें विशिष्ट व्यक्तित्व बनाती थीं। उनकी जयंती के अवसर पर उनकी स्मृति को शत शत नमन!
कवयित्री डॉ बसंती मठपाल ने त्रिवेदी जी का स्मरण करते हुए कहा कि गुरुजी स्वर्गीय गिरिजाशंकर त्रिवेदी जी इस भौतिक संसार को छोड़ चुके हैं, पर उनका अहसास हमारे हृदयों में उन्है हमेशा जीवंत बनाए हुए हैं।उनकी मधुर वाणी, उनकी स्नेहिल आत्मीयता, उनका वागवैदग्धय, उनका अपरिमित ज्ञान, उनकी निश्छल गुणग्राहकता, उनको उन गुरुओं की श्रेणी में रखते हैं जिन्होंने अपने शिष्यों को सदैव आसमान की बुलंदियों पर देखना चाहा था।उनके जैसा व्यक्तित्व आज कोई है ही नहीं। उनकी पावन स्मृतियों को कोटि- कोटि नमन।
पूर्व प्राचार्य और साहित्यकार डॉ इंद्रजीत सिंह ने कहा है कि डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी न केवल लोकप्रिय संचालक, अपितु बेहतरीन वक्ता, अप्रतिम कवि और लेखक के साथ साथ आत्मीयता से भरपूर महान शख़्सियत थे।
पत्रकार और कवि वीरेन्द्र डंगवाल पार्थ ने अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए अपने भाव व्यक्त किए और कहा कि
कवि, साहित्यकार, शिक्षक, पत्रकार आदरणीय डॉ गिरिजा शंकर जी की जयंती पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं। देहरादून में गुरु जी जैसे सम्मानित शब्द से ही लोग उन्हें संबोधित करते थे। वे जितने अच्छे गीतकार थे उतने उच्च कोटि के संचालक भी रहे। 2007 में जिस वक्त उनसे मेरी मुलाकात हुई वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे। बोलने में उन्हें तकलीफ होती थी। उनका साक्षात्कार लिया था वेली मेल के लिए। उनका साक्षात्कार और रचनाओं सहित लगभग एक पेज प्रकाशित हुआ था। उनके साथ मंच साझा नहीं कर पाए, जिससे हम बहुत कुछ सीखने समझने से वंचित रह गए। उनकी जयंती पर उन्हें सादर नमन।
साहित्यकार हेम चन्द्र सकलानी ने डॉ त्रिवेदी को याद करते हुए अतीत में खो गए। सकलानी जी ने कहा कि मैं सर्व प्रथम स्वर्गीय डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए शत शत नमन करता हूं। उनकी शानदार हंसी मुस्कराते छवि को भूलना मेरे लिए नामुमकिन सा है। जब से उनसे मिला था तब से मैंने लगता था जैसे उन्हें हमेशा अपने साथ खड़ा पाया। मेरी पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर मुझे कभी उनसे कोई विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ा। चार बार अनुरोध किया और बिना किसी इफ बट के आए और अपनी उपस्तिथि से कार्यक्रम को चार चांद लगाए तो थे ही लेकिन इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण बात जो थी वह यह थी कि बिना मेरे किसी विशेष अनु विनय अनुरोध के बिना उन्होंने पुस्तकों की बहुत सार गर्भित समीक्षा प्रस्तुत कर पुस्तकों को एक नए आयाम दिए। सच तो यह है कि उनसे पहले लेखन में मेरे तीस वर्ष गुजर गए थे और मैं अपने को नौसिखिया मान कर ही चलता था।
लेकिन उन्होंने मुझसे ही जैसे मेरी पहचान पहली बार कराई थी, यद्यपि इससे पूर्व सैकड़ों बार मुझे प्रकाशित होने का अवसर मिल चुका था। लेकिन यह सत्य है कि उनकी प्रेरणा उत्साहवर्धन से मै अपने लेखकीय कार्य को पहचान सका और आगे बढ़ने को प्रेरित हुआ। आज भी उनके द्वारा लिखी पुस्तकों कि भूमिका और समीक्षाएं जब देखता हूं तो मन पुलकित हो उठता है। दो बार विकासनगर डाकपत्थर में साहित्यिक कार्यक्रम थे। स्थानीय लोगों ने मुझसे अनुरोध किया कि आप को डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी को आमन्त्रित करने का कार्य दिया जाता है।
मुझे बहुत घबराहट हो रही थी कि कहीं उन्होंने मना कर दिया या किन्तु परंतु लगा दिया तो मै अपनी बात को न मनवा पाने की गरिमा से तो गिरूंगा ही लेकिन स्थानीय लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे कि इतना सा भी कार्य न करवा सके। लेकिन मै भाग्यशाली समझता हूं अपने को कि त्रिवेदी जी से जब मैंने कहा तो कोई किन्तु परंतु नहीं की, न कार से लाने ले जाने की शर्त रखी न किसी तरह के परिश्रमिक की मांग रखी। रात में आए और अर्ध रात्रि में वापस गए। उनके स्नेही व्यवहार को मै कभी भूल नहीं सकता। उनका व्यक्तित्व और व्यवहार सच में कहूं तो एक सफल साहित्यकार का दर्पण था।
डॉ मुनीराम सकलानी ने अपने संदेश में कहा कि परम श्रद्धेय डा0 गिरिजा शंकर त्रिवेदी जी की जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन व श्रद्धांजलि, उनका साहित्यिक व सामाजिक अवदान हमेशा याद रहेगा, प्रभु उनकी स्वर्गीय आत्मा को शांति प्रदान करे। शत-शत नमन। पूर्व कुलपति और लेखिका डा सुधा पांडे ने भी त्रिवेदी जी के साहित्यिक योगदान, उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार संप्रेषित किए।