उत्तराखंड में पहली बार मिला कीट-पतंगे खाने वाला मांसाहारी पौधा, पढ़ें पूरी खबर

Utricularia Furcellata in Mandal valley of Chamoli हल्द्वानी/चमोली/देहरादून। उत्तराखंड के चमोली जिले की मंडल घाटी में दुर्लभ प्रजाति के कीटभक्षी पौधे यूट्रीकुलेरिया फुर्सेलाटा (Utricularia Furcellata)…

उत्तराखंड में पहली बार मिला कीट-पतंगे खाने वाला मांसाहारी पौधा, पढ़ें पूरी खबर

Utricularia Furcellata in Mandal valley of Chamoli

हल्द्वानी/चमोली/देहरादून। उत्तराखंड के चमोली जिले की मंडल घाटी में दुर्लभ प्रजाति के कीटभक्षी पौधे यूट्रीकुलेरिया फुर्सेलाटा (Utricularia Furcellata) की खोज की गई है। देखने में बहुत सुंदर और नाजुक यह पौधा (यूट्रीकुलेरिया फर्सिलेटा) अपने शिकार के खून पर ही जीवित रहता है। इस मांसाहारी पौधे ने दुनियाभर के वैज्ञानिक समुदाय में नई रुचि जगाने के साथ नई संभावनाओं के द्वार भी खोले हैं।

मांसाहारी है दुर्लभ प्रजाति का Utricularia Furcellata पौधा

वनस्पति की अन्य प्रजातियों की तरह यह पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया से भोजन हासिल नहीं करता। बल्कि शिकार के जरिये संघर्ष करते हैं। यूट्रीकुलेरिया फर्सिलेटा कीटभक्षी पौधा है जो कीड़े-मकोड़ों के लार्वे खाकर उनसे नाइट्रोजन प्राप्त करता है। इनके ब्लैडर का मुंह 10-15 मिलि सेंकड में खुलकर बंद भी हो जाता है।

यूट्रीकुलेरिया फर्सिलेटा की खोज जापानी शोध पत्रिका में प्रकाशित

वन अनुसंधान केंद्र हल्द्वानी (Forest Research Center Haldwani) की रिसर्च टीम ने एक बहुत ही दुर्लभ प्रजाति कीटभक्षी पौधे यूट्रीकुलरिया फुरसेलटा की खोज की है। खास बात यह है कि वन अनुसंधान की इस अत्यंत महत्वपूर्ण खोज को 106 साल पुरानी जापानी शोध पत्रिका ‘जर्नल ऑफ जापानी बॉटनी’(Journal of Japanese Botany) में भी प्रकाशित किया गया है। इस पत्रिका में उत्तराखंड के वनों से संबंधित इस प्रकार का शोध पत्र पहली बार प्रकाशित हुआ है। मेघालय और दार्जिलिंग के कुछ हिस्सों में पाई जाने वाली यह प्रजाति 36 साल बाद भारत में फिर से रिकार्ड गई है। 1986 के बाद से इसकी उपस्थिति का प्रमाण नहीं मिल रहा था।

Photo credit – ANI

गोपेश्वर रेंज के जेआरएफ मनोज व हरीश को मिला यूट्रीकुलेरिया फर्सिलेटा का पौधा

मुख्य वन संरक्षक अनुसंधान संजीव चतुर्वेदी के मुताबिक 2019 से वन अनुसंधान ने कीटभक्षी पौधों को खोजने की मुहिम शुरू की है। अभी तक 20 अलग-अलग प्रजातियों का प्रमाण मिला चुका है। सितंबर 2021 में उत्तराखंड वन विभाग के अनुसंधान विंग की टीम में शामिल गोपेश्वर रेंज के जेआरएफ मनोज सिंह व रेंजर हरीश नेगी को चमोली जिले के मंडल घाटी के उच्च हिमालयी क्षेत्र में एक पौधा मिला। 2 से 4 सेंटीमीटर तक के इस पौधे के बारे में विस्तार से अध्ययन करने के बाद चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। यह यूट्रीकुलेरिया फर्सिलेटा कीटभक्षी पौधा है जो कीड़े-मकोड़ों के लार्वे खाकर उनसे नाइट्रोजन प्राप्त करता है। यूट्रीकुलेरिया फर्सिलेटा पौधा पूर्व में पूर्वोत्तर भारत में पाया गया था। Rare carnivorous plant Utricularia Furcellata in Mandal valley of Chamoli.

अंतिम बार 1986 में सिक्किम व दार्जिलिंग में ही मिला था यूट्रीकुलेरिया फरसीलेटा

विज्ञानी प्रमाण के लिए फोटो-वीडियो लेकर वनस्पति सर्वेक्षण संस्थान (बीएसआइ) के पास भेजे गए। गहन अध्ययन के बाद संस्थान के क्षेत्रीय निदेशक एसके सिंह ने बताया कि यह यूट्रीकुलेरिया फरसीलेटा है। भारत में इसकी मौजूदगी का प्रमाण अंतिम बार 1986 में सिक्किम व दार्जिलिंग में ही मिला था। सालों बाद दोबारा रिकार्ड होने से वनस्पति विज्ञानियों में भी खासा उत्सुकता है।

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जेआरएफ मनोज सिंह ने बताया….

जेआरएफ मनोज सिंह ने बताया कि 1986 के बाद से इस पौधे को देश में कहीं नहीं देखा गया। पर्यटन स्थलों पर भारी जैविक दबाव होने के कारण इस प्रजाति को खतरे का सामना करना पड़ रहा है। यह पौधा गीली भूमि और ताजे पानी में पाया जाता है। रिसर्च टीम को पौधे की जानकारी जुटाने और रिसर्च पेपर तैयार करने में डॉ. एसके सिंह (संयुक्त निदेशक बीएसआई देहरादून) ने विशेष मदद की।

मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी ने बताया…

वन अनुसंधान केंद्र हल्द्वानी में तैनात मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि इस तरह के पौधे सिर्फ ऑक्सीजन ही नहीं देते, बल्कि कीट-पतंगों से भी बचाते हैं। ये दलदली जमीन या पानी के पास उगते हैं और इन्हें नाइट्रोजन की अधिक जरूरत होती है। जब इन्हें यह पोषक तत्व नहीं मिलता तो ये कीट-पतंगे खाकर इसकी कमी को पूरा करते हैं। ये आम पौधों से थोड़ा अलग दिखते हैं। शिकार को पकड़ने में इनकी पत्तियां अहम रोल अदा करती हैं। ऐसे कीटभक्षी पौधों की विश्व में 400 प्रजातियां हैं जिनमें 30 तरह के पौधे भारत में पाए जाते हैं। उन्होंने कहा कि यह दुर्लभ पौधा पहली बार पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में मिला है।

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मेडिसीन गुण, उर्वरा विहीन में मिट्टी में जीवन

मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी के मुताबिक कीटभक्षी पौधों में मेडिसीन गुणों की संभावना होने के कारण इस पर अलग से शोध चल रहा है। पानी वाली जगह पर यह पनपते हैं। इसके आसपास की मिट्टी भी उर्वरा विहीन होती है। चर्तुवेदी के मुताबिक वनस्पति की अन्य प्रजातियों की तरह यह प्रकाश संश्लेषण क्रिया से भोजन हासिल नहीं करती। बल्कि शिकार के जरिये संघर्ष करते हैं। इनके ब्लैडर का मुंह 10-15 मिलि सेंकड में खुलकर बंद भी हो जाता है।

वनस्पतियों की खोज और उनके संरक्षण का प्रयास जारी

मुख्य वन संरक्षक (अनुसंधान) संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि गोपेश्वर रेंजर और जेआरएफ की मेहनत से कीटभक्षी की इस दुर्लभ प्रजाति को रिकार्ड करने में कामयाबी मिली है। वन अनुसंधान लगातार दुर्लभ वनस्पतियों की खोज और उनके संरक्षण की दिशा में जुटा है। कीटभक्षी प्रजातियों पर रिसर्च को लेकर दुनिया भर के विशेषज्ञों को दिलचस्पी रहती है।”

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रेंजर व जेआरएफ के लगातार तीन रिकार्ड

वन अनुसंधान की गोपेश्वर रेंज के रेंजर हरीश नेगी और जेआरएफ मनोज ने तीन साल में तीन बड़ी उपलब्धि हासिल की है। 2020 में दोनों ने तप्तकुंड ट्रैक पर 3800 मीटर की ऊंचाई पर आर्किड की दुर्लभ प्रजाति लिपरिस पाइग्मिया को रिकार्ड किया। फ्रांस की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका रिचर्डियाना में इसे मान्यता भी मिली थी। इसके बाद आर्किड की अन्य प्रजाति सेफालथेरा इरेक्टा को रिकार्ड किया। तब भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण ने माना था कि सेफालथेरा देश में पहली बार रिकार्ड हुई है। अब एक उपलब्धि और मिली है।

यूट्रीकुलेरिया क्या है – what is Utricularia

इसे ब्लैडरवर्ट भी कहते हैं। यह ज्यादातर साफ पानी में पाया जाता है। इसकी कुछ प्रजातियां पहाड़ी सतह वाली जगह पर भी मिलती हैं। बारिश के दौरान इसकी ग्रोथ अधिक होती है। इसकी पत्तियां गोल गुब्बारेनुमा होती हैं। जैसे ही कोई कीट-पतंगा इसके नजदीक आता है इसके रेशे उसे जकड़ लेते हैं। पत्तियों में निकलने वाला एंजाइम कीटों को खत्म करने में मदद करता है। यह प्रोटोजोआ से लेकर कीड़े, मच्छर के लार्वा और यहां तक कि युवा टैडपोल का भी भक्षण कर सकता है। इसका संचालन एक यांत्रिक प्रक्रिया पर आधारित है, जिसमें ट्रैप दरवाजे के अंदर शिकार को आकर्षित करने के लिए एक वैक्यूम बनाया जाता है। चतुर्वेदी ने बताया कि यह खोज उत्तराखंड में कीटभक्षी पौधों के अध्ययन की एक परियोजना का हिस्सा थी, जिसे वर्ष 2019 में अनुसंधान सलाहकार समिति (आरएसी) की ओर से अनुमोदित किया गया था।

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