रामनगर : सावित्रीबाई फुले को 190वीं जयंती पर किया याद
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रामनगर। भारतीय समाज की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को उनकी 190वीं जयंती पर विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से याद किया गया। रचनात्मक शिक्षक मण्डल द्वारा रामनगर के ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित 20 से अधिक पुस्तकालयों में बच्चों ने उनके जीवन के बारे में जाना व उनका चित्र बनाया। उनके जीवन के बारे में बताते हुए नवेंदु मठपाल ने कहा, सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवियत्री थीं। वे प्रथम महिला शिक्षिका थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। 1 जनवरी 1848 जो उन्होंने बालिकाओं के लिए पुणे में पहले विद्यालय की स्थापना की। उस समय की कट्टरपंथी ताकतों को यह बरदाश्त नहीं हुआ। इसलिते वे जब स्कूल में जाती तो उनके ऊपर कीचड़ फेंका जाता था, पर वे बिल्कुल भी विचलित नहीं हुई और वे साथ में एक अलग से साड़ी लेकर जाती थीं और स्कूल जाकर साड़ी बदल लेती थीं।
उनका जन्म महाराष्ट्र में 3 जनवरी 1831 को एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खण्डोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। शिक्षक नन्दराम आर्य ने बताया उस वक्त बहुत सारी लड़कियां महज 12-13 की उम्र में विधवा हो जाती थीं। इसके बाद उनका केशवपन कर उन्हें कुरूप बनाया जाता था। ताकि उनकी तरफ कोई पुरुष आकर्षित न हो सके। लेकिन अनेक बार वे ठग ली जाती थीं। ऐसी गर्भवती हुई विधवाओं का समाज बहिष्कार कर देता था। ऐसे में उस गर्भवती विधवा के सामने सिर्फ दो पर्याय बचते थे या तो वह उस बच्चे को मार दे या खुद आत्महत्या कर ले।
इस अमानवीय नरसंहार से महिलाओं को बाहर निकालने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीमाई ने गर्भवतियों के लिए प्रसूतिग्रह शुरू किया जिसका नाम था “बालहत्या प्रतिबंधक गृह” जो उन गर्भवती महिलाओं के लिए उनका घर भी था। सुभाष गोला ने जानकारी दी विधवा केशवपन का विरोध करते हुए सावित्रीबाई ने नाइयों की हड़ताल कराई। एक बार ज्योतिबा ने एक गर्भवती महिला को आत्महत्या करने से रोका और उसे वादा किया कि होने वाले बच्चे को वह अपना नाम देंगे। सावीत्रीबाई ने उस महिला का स्वीकार किया और उसे पूरी सहायता दी। बाद में उस महिला से जन्मे बच्चे को सावित्रीबाई और ज्योतिबा ने अपना नाम देकर उसकी परवरिश की उसे पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया।
छुआछूत, जातिवाद जैसी अमानवीय परंपरा को नष्ट करने के लिए अविरल काम करने वाले ज्योतिबा का सावित्रीबाई ने बराबरी से साथ निभाया। ज्योतिबा की मौत के बाद सावित्रीबाई ने उनकी चिता को आग लगाई। यह क्रांतिकारी कदम उठाने वाली सावित्री देश की पहली महिला थी। ज्योतिबा की मृत्यु के बाद सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लिया और पूरी कुशलता से उसे निभाया। इसी दौरान उन्होंने “काव्य फुले” और “बावन कशी सुबोध रत्नाकर” नामक ग्रंथों का निर्माण कर समाज का प्रबोधन किया और वह आधुनिक जगत में मराठी की पहली कवियत्री बनी।
1897 में पुणे में फैले प्लेग के दौरान सावित्रीबाई दिन-रात मरीजों की सेवा में लगी थी। उन्होंने प्लेग से पीड़ित गरीब बच्चों के लिए कैंप लगाया था। प्लेग से पीड़ित बच्चे पांडुरंग गायकवाड़ को लेकर जब वह जा रही थीं तो उन्हें भी प्लेग ने जकड़ लिया। 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई का देहांत हो गया। पुस्तकालयों में बच्चों द्वारा सावित्रीबाई फुले का चित्र भी बनाया गया व उनके जीवन पर आधारित फिल्म भी देखी गयी। पुस्तकालयों में कार्यक्रम को सफल बनाने में मेघा आर्या, प्रियांशु लखचोरा, उदय लाल, रेखा आर्या, विपिन छिमवाल, जितेंद्र कुमार, निकिता सत्यवली, गीतांजलि बेलवाल, बालकृष्ण चंद, गिरीश मेंदोला, प्रेमराज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्कूली बच्चों के व्हाटसअप ग्रुप जश्न ए बचपन में नानकमत्ता से डॉ. कमलेश अटवाल व प्रमोद कांडपाल ने सावित्रीबाई के जीवन के विभिन पहलुओं व उनका समाज में योगदान पर बातचीत रखी।