Varanasi : राइट टू हेल्थ के बिना जिंदगी सुरक्षित नहीं – डॉ. ओमशंकर

वाराणसी। देश में अगर राइट टू हेल्थ (सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार) का कानून लागू होता तो कोरोना ने जितनी तबाही मचाई और जितनी जानें…


वाराणसी। देश में अगर राइट टू हेल्थ (सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार) का कानून लागू होता तो कोरोना ने जितनी तबाही मचाई और जितनी जानें गयीं उसे रोका जा सकता था लेकिन इसे दुर्भाग्य कहेंगे कि देश में स्वास्थ्य कोई मुद्दा है ही नहीं। कोरोना से पहले भी आम आदमी के स्वास्थ्य के मुद्दे पर सरकारें सो रही थीं और अब भी सरकार सो रही है।

जिस समय अस्पताल बनाने चाहिए थे दवाईयां खरीदनी चाहिए थी उस समय मंदिर बना रहे थे, राफेल खरीद रहे थे। कोरोना की पहली लहर के बाद भी सरकार सजग नहीं हुई जिसका परिणाम कोरोना की दूसरी लहर में होने वाली बेइंतहा मौतें हैं। बिना आक्सीजन के ही लोग तड़प-तड़प कर मरते रहे। जब वेंटिलेटर, आक्सीजन लोगों को सुरक्षित करने के लिए खरीदा जाना था तब सरकार चुनाव और नेता खरीद रही थी परिणाम की भयावहता को हम सबने देखा और भोगा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान स्थित सर सुन्दर लाल चिकित्सालय के हृदय रोग विभाग के प्रोफेसर ओम शंकर बेहद संजीदा तरीके से देश की स्वास्थ्य व्यवस्था और कोरोना पर बातचीत करते हुए कहते हैं कि अगर स्वास्थ्य तंत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया तो कोरोना ही क्यों आने वाले समय में किसी दूसरी बीमारी इससे बड़ी तबाही ला सकती है।

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वो कहते हैं कि अगर अभी भी केन्द्र और राज्य सरकारें अपने बजट का 10 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं और उसके आधुनिकीकरण पर नहीं खर्च करते तो आने वाले समय में भी लोगों की जान जाती रहेगी। वैक्सीनेशन को लेकर भी उनके सवालों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। वैक्सीनेशन के परीक्षण (ट्रायल), साइड इफेक्ट, वैक्सीनेशन के बाद भी होने वाली मौतों पर भी वो सवाल उठाते हुए कहते हैं कि ट्रायल के परिणाम सार्वजनिक होने के साथ ही वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स और उससे होने वाली मौतों पर शोध की जरूरत है। वैक्सीन की कीमत को लेकर उनका कहना है एक ही वैक्सीन के अलग-अलग दाम पर कैसे बेचा जा सकता है? ये सीधे तौर पर संवैधानिक रूप से गलत है। वैक्सीन को राष्ट्रवाद के नजरिए से जोड़कर वो कहते हैं कि देश के लोगों को नजरंदाज कर वैक्सीन का निर्यात करना राष्ट्रवाद की श्रेणी में आता है या राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में? वो कहते हैं कि वैक्सीन से आप क्या रोकना चाहते हैं देश की आबादी 130 करोड़ है।

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लोगों में हार्ड इम्यून को डेवलप करने के लिए  कम से कम 60 फीसदी यानी 80 से 85 फिसदी लोगों का वैक्सीनेशन करना होगा जो फिलहाल संभव नहीं है। आप खुद समझ लीजिए कि कोरोना की पहली लहर के खत्म होने और दूसरी लहर के आने के दरमियान केवल 3% लोगों को ही वैक्सीन लगा इससे पहले कोरोना का संक्रमण ही लोगों में  हार्ड इम्यूनिटी जनरेट कर दे रहा है। नज़ीर पेश करते हुए वो कहते हैं कि पहली लहर के बाद इम्यूनिटी जनरेट हुई लेकिन उसके बाद वायरस का नया वेरिएंट (स्वरूप) सामने आया जो पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक था लेकिन कुंभ, चुनाव और नासमझ अधिकारियों (जैसा बीएचयू में हुआ) ने इसे और विकराल रुप दे दिया।

कोराना संक्रमण की गति के धीमे पड़ने पर वो कहते हैं कि यह किसी महारथी की देन नहीं एक समय बाद नेचुरल इन्फेक्शन नेचुरल हार्ड इम्यूनिटी के स्टेज में परिवर्तित हो जाता है साथ ही आगाह करते हैं कि आने वाले समय में कोई नया वेरिएंट आ जाए जो इससे भी ज्यादा खतरनाक और नुकसान पहुंचाने वाला हो सकता है इसलिए कोरोना पर जीत के दावे करने वाले महारथियों को समय रहते बेहतर चिकित्सा व्यवस्था की तैयारी पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि आने वाले समय में लोगों को बचाया जा सके।

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18-45 साल के लोगों के वैक्सीनेशन को देश के स्तंभ के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ मानते हुए कहते हैं जब आपके पास ट्रायल डाटा मौजूद नहीं है ऐसे में देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते। कोरोना के सामाजिक पक्ष पर वो कुछ यूं प्रतिक्रिया देते हैं, “कोरोना ने धर्म-मजहब पूछकर जान नहीं ली। मरने वाले किसी एक धर्म विशेष के नहीं थे।” कोरोना काल में ऐसे सैकड़ों मिसाल देखने को मिले हैं जहा धर्म काम नहीं आया। मानव धर्म और मानवीयता ही काम आयी। हम सभी के लिए इस सच को समझना जरूरी है।


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