धर्म देखकर पुलिस-प्रशासन और पत्रकारों पर हुए सुनियोजित हमले कुछ राजनैतिक दलों के नेताओं की हो सकती है साजिश
सीएनई रिपोर्टर, हल्द्वानी। बनभूलपुरा में जो कुछ हुआ उसको लेकर लगातार खूफिया रिपोर्ट सामने आ रही है। अब तक कई हैरान कर देने वाली जानकारियां सामने आई है। जिसमें सबसे अहम तो यह है कि यह दंगा जानबूझ कर करवाया गया था। इसके पीछे कुछ राजनैतिक दलों के बड़े नेता शामिल हो सकते हैं। सबसे चौंकाने वाला जो खुलासा हुआ है उसके अनुसार पुलिस-प्रशासन के लोगों को जिंदा जलाने की एक बड़ी साजिश थी। जिसका उद्देश्य समाज के बीच एक बड़ा खौफ पैदा करना था। हालांकि नैनीताल पुलिस ने जिस धैर्य से इस विपरीत हालातों का मुकाबला किया, उसके लिए पुलिस प्रशासन की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है।
मीडिया रिपोर्टस के अनुसार बनभूलपुरा में उपद्रवी इस घटनाक्रम से पूरी सरकारी मशीनरी को संदेश देना चाहते थे कि जब भूमि के एक टुकड़े को खाली कराने में प्रशासन को इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी तो पूरे बनभूलपुरा को खाली कराने में कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, इसका अंदाजा शासन-प्रशासन के लोग आसानी से लगा सकें। कुछ वायरल वीडियो में बताया गया है कि उपद्रवी धर्म देखकर पत्रकारों व पुलिस कर्मियों पर हमले कर रहे थे। जिससे साबित होता है कि उनके इरादे क्या थे।
हालांकि यह मामला कतई भी किसी धार्मिक उन्माद से नहीं जुड़ा था। ज्ञात रहे कि बनभूलपुरा की अधिकांश आबादी रेलवे की भूमि पर बसी है। इस तथ्य से सहमत होने के बाद ही हाई कोर्ट ने पिछले साल इस भूमि से अतिक्रमण हटाने के निर्देश दिए थे। प्रशासन ने अतिक्रमण हटाने की तैयारी भी कर ली थी।
मास्टर माइंड अब्दुल मलिक ने सबको किया गुमराह
इस संपूर्ण मामले में एक बात साफ हो चुकी है कि बनभूलपुरा हिंसा का मास्टरमाइंड अब्दुल मलिक बहुत ही शातिर इंसान है। उसने न सिर्फ सरकारी भूमि पर स्थापित बगीचे पर कब्जा करने के लिए प्रशासनिक अधिकारियों को गुमराह किया, बल्कि उच्च न्यायालय की आंखों में भी धूल झोंकने की कोशिश की। नगर निगम की रिपोर्ट बताती है कि नबी रजा वर्ष 1988 में स्वर्ग सिधार चुके हैं, उनके नाम से वर्ष 2006 में बगीचे को फ्री होल्ड कराने की कोशिश उसने कई बार की। हर बार निगम और जिला प्रशासन की टीम ने उसकी चालबाजी को पकड़ा। यह और बात है कि राजनीतिक दबाव में उसके खिलाफ कार्रवाई का साहस कोई भी नहीं जुटा पाया।
अब्दुल मलिक का मलिक का बगीचा से कोई लेना-देना नहीं
खास बात तो यह है कि जिस संपत्ति को मलिक का बगीचा के नाम से प्रचारित किया गया, वास्तविकता में अब्दुल मलिक का उससे कुछ लेना-देना है ही नहीं। वह जमीन 1980 के दशक में अशरफ खां के पुत्र नबी रजा के कब्जे में हुआ करती थी। इस बगीचे को हथियाने का असल खेल वर्ष 2006 में शुरू हुआ। 8 जून 2006 को नबी रजा के नाम से इस भूमि को फ्रीहोल्ड कराने के लिए जिलाधिकारी के पास एक आवेदन किया गया था।
नबी रजा के नाम से किया था आवेदन
साल 2007 में नगर पालिका प्रशासन ने आवेदन को संदिग्ध बताते हुए एडीएम को रिपोर्ट दी कि जिस नबी रजा के नाम से आवेदन किया गया है, उनकी मृत्यु तो 1988 में ही हो गई है। एडीएम ने तत्कालीन जिलाधिकारी को प्रकरण से अवगत कराया, लेकिन अब्दुल मलिक का रसूख ऐसा था कि मामला ठंडे बस्ते में चला गया।
दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित रिपोर्टस के अनुसार सरकारी जमीन के सौदागरों का हौसला वहीं से बढ़ना शुरू हुआ और उन्होंने 1988 में स्वर्ग सिधार चुके नबी रजा के नाम से बगीचे को फ्री होल्ड कराने के लिए वर्ष 2007 में हाई कोर्ट में आवेदन दाखिल कर दिया। उस समय हाई कोर्ट ने जिला प्रशासन को मामले का त्वरित निस्तारण करने का आदेश दिया, लेकिन राजनीतिक दबाव में जिला प्रशासन ने मामले को लटकाए रखा। इस घटनाक्रम के 13 वर्ष बाद अब्दुल मलिक ने इस बगीचे की भूमि को फ्री होल्ड कराने के लिए नगर आयुक्त को एक आवेदन पत्र सौंपा, जिस पर कोई भी निर्णय नहीं हो सका।
हस्ताक्षर करके जमीन में किया फर्जीवाड़ा
चौंकाने वाली बात यह है कि वर्ष 2006 और वर्ष 2007 में जिला प्रशासन एवं हाई कोर्ट को सौंपे गए आवेदन में नबी रजा के नाम से जो हस्ताक्षर अंकित थे, वही हस्ताक्षर 14 दिसंबर 2020 को उसी भूमि को फ्रीहोल्ड कराने के लिए दिए गए अब्दुल मलिक के आवेदन में भी अंकित थे। ऐसे में प्रशासन काफी हद तक इस बात को लेकर आश्वस्त है कि 1988 में स्वर्ग सिधार चुके नबी रजा के नाम से फर्जी आवेदन अब्दुल मलिक ही कर रहा था। इस बात की पुष्टि के लिए प्रशासन ने हैंडराइटिंग एक्सपर्ट को दोनों आवेदनों की प्रति अग्रसारित की है। यदि दोनों हस्ताक्षर में समानता पाई गई तो मलिक की मुश्किलें बढ़नी तय हैं।
3 फरवरी को जब नगर निगम की टीम मलिक के बगीचे के नाम से चर्चित सरकारी भूमि को खाली कराने पहुंची तो अब्दुल मलिक की पत्नी साफिया वर्ष 2007 का हाई कोर्ट का वह आदेश लेकर टीम के सामने उपस्थित हो गईं, जिसमें जिला प्रशासन को मामले को तत्काल निस्तारित करने के निर्देश दिए गए थे।
फर्जी हस्ताक्षर पर उठ रहे हैं सवाल
अब प्रशासन ने सवाल यह उठाया कि हाई कोर्ट ने यह आदेश वर्ष 2007 में उस नबी रजा के आवेदन के संदर्भ में दिया है, जिनकी मृत्यु 1988 में हो चुकी है। ऐसे में उनके फर्जी हस्ताक्षर से किसने अधिकारियों और हाई कोर्ट को गुमराह किया? इसके अलावा साफिया मलिक ने दावा किया कि यह भूमि नबी रजा ने उनके पिता को दान में दी थी, लेकिन उसका कोई प्रमाणिक दस्तावेज प्रशासन को नहीं दिखा सकीं। इसके साथ ही यह भूमि साफिया के बाद अब्दुल मलिक के पास कैसे पहुंच गई, इसका भी कोई प्रमाणिक दस्तावेज वह प्रशासन के सामने प्रस्तुत नहीं कर सकीं।
प्रशासन छह फरवरी से ही कर रहा था तैयारी
जिला प्रशासन दस्तावेजों और प्रमाणों के आधार पर इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त था कि उच्च न्यायालय से अब्दुल मलिक को कोई राहत नहीं मिलने वाली है। इस बात का अहसास अब्दुल मलिक को भी था। यही वजह है कि आठ फरवरी को अपराह्न करीब तीन बजे हाई कोर्ट ने मलिक को राहत देने से मना कर दिया। एक तरफ प्रशासन अतिक्रमण तोड़ने की तैयारी में जुट गया, तो दूसरी तरफ अब्दुल मलिक बवाल की साजिश रचने में।
खुफिया एजेंसियों ने दी थी वार्निंग
प्रशासन इस बात को लेकर पहले से ही आशंकित था, क्योंकि खुफिया एजेंसियों ने पहले ही इनपुट दे रखा था कि प्रशासनिक टीम पर पथराव के लिए बनभूलपुरा में छतों पर भारी मात्रा में पत्थर एकत्र किए गए हैं। शायद यही वजह है कि डीएम के नेतृत्व में सुरक्षा एजेंसियां छह फरवरी से ही ड्रोन के जरिये बनभूलपुरा के छतों की मॉनिटरिंग कर रही थीं।
तोड़ दिए थे सीसीटीवी, ड्रोन में कैद हुई हिंसा
ड्रोन से प्राप्त फुटेज में आठ फरवरी को शाम तक किसी भी छत पर पत्थर नहीं दिखे। जिस समय नगर निगम की टीम सरकारी भूमि पर स्थित अतिक्रमण को तोड़ रही थी, उसी समय उससे करीब पांच सौ मीटर दूर बनभूलपुरा की अन्य गलियों में भारी संख्या में उपद्रवी हाथों में पत्थर लिए घरों से निकलते दिखे। उपद्रवियों ने गलियों के सीसीटीवी कैमरे भले ही तोड़ दिए थे, लेकिन उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि जिला प्रशासन छह फरवरी से ही पूरे इलाके की ड्रोन से निगरानी करा रहा था। ड्रोन से प्राप्त यही वीडियो फुटेज आगे चलकर प्रशासन के पक्ष में मजबूत साक्ष्य का काम कर सकते हैं।